दामिनी : शहादत रूप

मरे हुये को जीवित कर गयी,
जीने की कुछ इच्छाये देकर॥

कच्ची कलीं कुचल गयी थी,
आज के दिन बागी बन कर।
जकड़ी गयी ज्योति की ज्योति,
दरिन्दों के चंगुल फँसकर।
मरे हुये को जीवित कर गयी,
जीने की इच्छाये देकर॥

सूरज उगने से पहले सोयी,
आबरू पीड़ा खुद समेटकर।
माँ बाप का आँसू निकलता,
दर्द का कतरा कतरा बनकर।
मरे हुये को जीवित कर गयी,
जीने की कुछ इच्छाये देकर॥

"मुझे जीना है" की धुन निकलती,
आज भी उसकी चीख चीखकर।
आज जिन्दा है वो इस फिजा में,
कहती अब भी कलेजा भींचकर।
मरे हुये को जीवित कर गयी,
जीने की कुछ इच्छाये देकर॥

याद करो निर्भीक बिटियाँ को,
अब हाथों में अखबार लेकर।
रौंद दिया था जिसे जालिमों ने,
खुद पिशाच नरभक्षी बनकर।
मरे हुये को जीवित कर गयी,
जीने की कुछ इच्छाये देकर॥

रिहाई का न्याय दिया न्यायालय,
अपराधी को नाबालिक कहकर।
भारतीय कानून शर्मिन्दा करता,
ऐसे कातिलों को जिन्दा रखकर।
मरे हुये को जीवित कर गयी,
जीने की कुछ इच्छाये देकर॥

न्यायिक पट्टी सरकाया जालिम,
नाबालिक की ठोकर देकर।
मेरे मन की न्यायिक पीड़ा कहती,
शान्ति मिलेगी उसे फाँसी देकर।
मरे हुये को जीवित कर गयी,
जीने की कुछ इच्छाये देकर॥

उस बेटी को न्याय दिलाओ,
कानून अपने हाथ में लेकर।
"निर्भया" कौन थी फिर बता दो,
संसद में बैठों की नींद उड़ाकर।
मरे हुये को जीवित कर गयी,
जीने की कुछ इच्छाये देकर॥

न्याय ने दिल चीर दिया अब,
जख्मों पर जो मरहम रखकर।
मन होता आग लगा दूँ गोलों में,
अत्याचारियों का नाम लिखकर।
मरे हुये को जीवित कर गयी,
जीने की कुछ इच्छाये देकर॥

पराई हुयी उस बिटियाँ की बिदाई,
जनता चली बेवश लाचार होकर।
मिला नहीं है अभी तक न्याय,
न्याय चला नेताओं के झोली सोकर।
मरे हुये को जीवित कर गयी,
जीने की कुछ इच्छाये देकर॥

तात मात आज आप : घनाक्षरी

शब्द शब्द की पुकार एक रात एक बात,
तात मात आज आप चाँद को सँवार दो।

आज गीत गात जात पात पात घाट घाट,
गाँव ठाँव हाव भाव नाव को सँवार दो।

एक एक एक बात आस पास चार धाम,
रीत प्रीत जीत मीत भ्रात को सँवार दो।

देश प्रेम डाल डाल आह वाह चाह राह,
मौन गीत फूँक प्राण गीत को सँवार दो॥
                      ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

कर्ण जैसा दानवीर : घनाक्षरी

कर्ण जैसा दानवीर सत्यवादी हरिश्चन्द,
अर्जुन जैसे पराक्रमी आज भी पड़े हैं।

राम जैसा आज्ञाकारी राणा जैसा देशभक्त,
शिवाजी जैसे क्षत्रिय तो साथ में खड़े हैं।

श्रवण जैसा बालक एकलव्य जैसा शिष्य,
लखन जैसे भाई मेरे देश में पड़े है।

सीता जैसी नारी देखो मीरा सी दिवानी देखो,
हनुमान जैसे सेवक साथ में खड़े है॥
                      ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

जरा सा देख लेना घर : ग़ज़ल

चिरागों से उजाला क्या कभी ऐसे मिला होगा,
तुम्हारी याद से जैसे हमारा दिल जुड़ा होगा।

यहाँ जब रात होती है तुम्हारी याद आती है,
तुम्हारी याद में मूरत बना तुमने सुना होगा।

पिला कर ज़ह्र मीठा प्यार का दफना गयी मुझको,
खुदा इससे बचाये यार अच्छा ही सदा होगा।

अगर कुछ याद हो तो तुम जरा सा देख लेना घर,
तुम्हारे घर के कोने में हमारा खत पड़ा होगा।

कहो किसको सुनाये हम हमारे रंज तकलीफें,
पता है जब हमें शामिल न कोई दूसरा होगा।

तुम्हारे नाम पर जीते चले जाना वफादारी,
वफा में जान देने से भला किसका भला होगा॥
                           ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

कभी कभी अल्फ़ाजों में

कभी कभी अल्फ़ाजों में,
मैं दर्द महसूसता हूँ,
कभी कभी दर्दों में ही,
अल्फ़ाज महसूसता हूँ।

ख्वाहिशों के सभी पन्ने,
थक जाते जब बातें कर,
थम जाती साँसें मेरी,
कुछ अल्फ़ाजों को पाकर।

कुछ अन्जानें छूट गये,
कुछ पहचाने रूठ गये,
कुछ अपने हैं साथ चले,
कुछ अपने भी रूठ गये।

मंजिल तो बस मंजिल है,
शायद खाबों की नगरी,
जज्बातों के साथ चलो,
कहती भावों की नगरी।

कुतर रहे भाव हमारे,
आँखों के सपने हरदम,
आँसू पीड़ा लाचारी,
भरते अब मुझमें दमखम।

सुकूं नहीं मिलता मुझको,
दर्द की भावना पाकर,
लफ़्ज बयां होते जाते,
आँखों में अश्क भर भरकर।

लोगों का ताना बाना,
ख्यालों का आना जाना,
फिर भी सबका हाथ साथ,
रखकर है  साथ निभाना।

जीवन के इस पड़ाव में,
दौर सलामत पता नहीं,
मौन मौन सी रातें हैं,
कब जल जायें पता नहीं॥
              ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

बुझते चिराग

बुझते चिरागों की 
चमकीली लौ,
वक्त बेवक्त मुझको
याद आती है।
दिल हँसता है
रोता है
गाता है
उन पर
जो इबादत में डूबे
पल पल हर पल
फरियाद करते हैं।
कुछ कच्चे सपनें
आँखो में दिनभर
तरसते हैं।
पैरो तले दबे दर्द
हमेशा उकसते हैं
अन्दर की पीड़ा जगती है
फिर उदास होकर
लक्ष्य त्याग कर
दुर्गम पथ पकड़े
नीद की झील में
डूबकी लगाती है।
आज कुछ लोग
ख्वाबों में टहलते हैं
गर्दिशों में रहते हैं,
फिर भी उनकी आँख के आँसू
इस उम्र में, 
यादों की चौखट पर पाँव रखे
तकलीफों में उनकी हकीकत
बयाँ करते हैं।
आज सारे दिल के दरवाजे
लोगों की फितरत बताने के लिए
मुकद्दर की रेखा दिखाने के लिए
और
खुद की दुनिया सजाने के लिए
खुलें हैं।
हो सके तो आप भी
अपने ख्वाबों की नगरी
हकीकत में सजाईये।
मुझे अपने जीवन के
छिछले सागर की चिन्ता
आपसे ज्यादा है,
और वही चिन्ता
आज इन आँखों को
मदहोशी में लपेटे सोने नहीं देती।
                        ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

अतुल के दोहे

भाग दौड़ सी जिन्दगी, अम्ब विमल सी सोच।
भाव दीप बाती बने, तब खुशहाली होत॥१

आओ मिलकर सब करें, काव्य सुधा रस पान।
खुशी देख दीपक जना, उजला सकल जहान॥२

सपनों में बैठे हुये, लिये हुये सब अंग।
प्रेम भाव अलाप रहे , झूठ भजन सत्संग॥३

उलझी नजरें हर तरफ, नहीं बात का अन्त।
चलती रहती है कलम, भाषा भाव अनन्त॥४

सुख सत्ता की चाह में, राजा देते भोज।
बातें सुन कर ज्ञान की, खिलते आज सरोज॥५
                                  ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"
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ऐ जिन्दगी जरा बता, क्या है तुझमें खास।
आज का कुछ पता नहीं, कल की क्युँ है आस॥६

सुबह सुबह में आज हम, लेकर बैठे चाय।
सर्द गुनगुनी धूप में, मिली मुझे बस राय॥७

उलझन के इस दौर में गायब है मुस्कान।
सुलझाने की आश में, खड़े हो गये कान॥८

जीवन के इस राह में, हुयी कहीं पे चूक।
शाहस खोये हैं सभी, आज खड़े सब मूक॥९
                             ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"
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 बात बात में यहाँ पर, गुरू देत है ज्ञान।
शिष्य भविष्य की सीढ़ी,  कहताआज विज्ञान॥१०

समय समय से बोलता, गुरू ज्ञान आधार।
शुन्य को अंक बनाना, उसका है अधिकार॥११

गुरू के बिनु ज्ञान नहीं, मानी युग ने बात।
भावुक जीवन जी रहे, काट रहे सब रात॥१२

जीवन खुशियाँ देख कर, करता ह्रदय विचार।
गुरू न होता जो अगर, आता कहाँ निखार॥१३

हँसता फूलों को देख,  भरता है मुस्कान।
जान सपनों में भरके, बनता गुरू महान॥१४

हौसला सीने में लिये, कभी न मानो हार।
कहता रहता गुरू है, है जीवन में धार॥१५

विजित तर्क ही रहा है, गुरू शिष्य का मान।
नैतिक मूल्य सदा जिन्दा, तू इसको पहचान॥१६

माता पिता और गुरू, इस जीवन की राग।
सदा सदा इनके यहाँ, जुड़ते रहते ताग॥१७

जीवन सुख से है भरा, यही बसन्ती बाग।
गुरू सिखाता आज नित, आलस से तू जाग॥१८

नमन गुरू को करूँ मैं, नतमस्तक हो आज।
 प्रभु सम ही तो दिख रहे,  सदा गुरू महराज॥१९
                                         ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

शब्द शब्द की पुकार : घनाक्षरी

शब्द शब्द की पुकार सुन मेरी ये गुहार,
सीमाओं पे खड़े है जो उनको सलाम है।

रात रात चल रहे दिन भर जल रहे,
रात रात जाग जाग कर रहे काम है।

आँधियों से लड़ जाते तुफानों से भीड़ जाते,
दुश्मनों का हर वार करते नाकाम है।

आस कभी तोड़े नहीं साथ कभी छोड़े नहीं,
मेरे हिन्दवासियों का बस यहीं काम है॥
                             ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

ग़ज़ल

दिल का दीपक जलता रहता,
चोट जिगर का सहता रहता।

गीत तराना दिल को भाता,
मुझसे हर पल कहता रहता।

दिल में है जो गम का सागर,
आँसू बनकर बहता रहता।

नफरत चाहत दिल का हिस्सा,
हसरत बनकर चलता रहता।

नजरों में अब नजरें छिपती,
सूरज भी तो ढलता रहता।

अपने दिल के हिस्से में तो,
बस सपना ही पलता रहता।

वो क्या जाने पीर पराई,
अपनी धुन जो रमता रहता।

पल कहता है सब सहता है,
सब चलता है चलता रहता॥
                  ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

शुन्य : घनाक्षरी

शुन्य है धरती समुची शुन्य ही आकाश है,
क्या हुआ जो मैं नही शुन्य के इतिहास में।

शुन्य ना है अंक कोई भावना का पंक कोई,
शुन्य तो आकार है शुन्य के इतिहास में।

शुन्य ना है भार कोई और ना विकार कोई,
सत्यता ही सत्य है शुन्य के इतिहास में।

शुन्य ना तो राग कोई शुन्य ना वैराग कोई,
शुन्य शुन्य शुन्य है शुन्य के इतिहास मे॥
                       ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

ज्ञान ताक पर : स्वागता छन्द

ज्ञान ताक पर दर्ज हमारा,
देख आज यह फर्ज हमारा।
नोटबन्द बुनियाद डली है,
खोज मात्र यह जीत भली है॥

तोड़ इश्क़ फरियाद जगी है,
राज जान यह आग लगी है।
राग द्वेष भर कौम जगे हैं,
आह आह कर चोर भगे है॥

जीत धर्म पथ शोर मचाती,
मौन रात बस भोर जगाती।
आज देख यह राह सुहानी,
सोचती कलम सार कहानी॥

हाव भाव कविता बन आयी,
गाँव गाँव चुपचाप सुनायी।
पेट पीठ अब दौलत भाई,
देख आज सब देत बधाई॥
           ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

सब रूप में बाधित

तन
मन 
ह्रदय
दॄष्टि
मौन
क्रन्दन
धैर्य
और शाहस
सब रूप में
बाधित है।
रात में जागती भोर की 
सम्भावनाओं को 
क्युँ भरमा रही हो?? 
मेरी दॄष्टि सीमित है 
आशा-निराशा के 
जीवन में 
हताशा-घुटन को 
आवाज देकर 
तन मन को 
दुविधा में डाल 
व्यथा को माथ लिये 
अब क्युँ सकुचा रही हो? 
मेरी आश 
तुम पर टिकी है 
हो सके तो 
मेरे प्रश्नों का उत्तर दे दो। 
मेरा दिल 
आज 
उदासियों से भरा हैं 
कुछ शिकायत हो 
तो शिकायत दे दो।
हजारों खुशियाँ 
तुम्हारे जेहन में 
साथ साथ चलती हो 
तो हँसी-खुशी 
सुझाव 
और 
बस अपनी 
इनायत दे दो॥
     ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य" 

हे नाथ सुनो

हे नाथ! सुनो तुम मेरी पुकार,
मन ब्याकुल होता बार बार॥

अन्तर में है ध्यान तुम्हारा,
कानों में है गान तुम्हारा,
इस अगणित बेला में मेरे,
हर पल होवे साथ तुम्हारा,
सेवक बन जब करूँ नमन तो,
हो नमन स्वीकार हमारा,
हे नाथ! सुनो तुम मेरी पुकार,
मन ब्याकुल होता बार बार॥

मेरे मन की अमिट लकार,
दिल तोड़ रही है बारम्बार,
मुश्किल ना है कुछ दुनिया में,
तब ना जाऊँ खाली हाथ,
सता रही आकुलता मुझको,
अन्तर का बन जाओ हार,
हे नाथ! सुनो तुम मेरी पुकार,
मन ब्याकुल होता बार बार॥

तुमसे होती मेरी क्रीड़ा,
सहन ना होती कोई पीड़ा,
आश लगाऊँ कृपा ना पाऊँ,
दुख उठाऊँ दरश ना पाऊँ,
ऐसा ना हो मेरे नाथ अब,
हाथ फेर दो मेरे माथ तब,
हे नाथ! सुनो तुम मेरी पुकार,
मन ब्याकुल होता बार बार॥

नाम ढूढ़ता पहचान ढूढ़ता,
अब अपनी आवाज ढूढ़ता,
पल पल गुजरे पल में अपने,
शतदल का अम्बार ढूढ़ता,
अभी खोज ना हुयी खत्म है,
ऐसे में तुम रहना साथ,
हे नाथ! सुनो तुम मेरी पुकार,
मन ब्याकुल होता बार बार॥

तुम्हारें चरणों में मै लोटू,
रज कण में बन जाउँ छोटू,
पड़ा रहूँ आशन के नीचे,
दर्शन से मै आँखे सीचूँ,
सदा सत्य तुम राह दिखाना,
जीवन बर का साथ निभाना,
हे नाथ! सुनो तुम मेरी पुकार,
मन ब्याकुल होता बार बार॥
             ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

अब लेखन की मर्यादा में

अब लेखन की मर्यादा में,
बस मर्यादा की बात करेंगे।

एक एक तारों की बातें,
घर घर की विरही रातें,
सुखी दुखी आनन्द समर की
सत्य सदा गुणगान करेंगे,
अब लेखन की मर्यादा में,
बस मर्यादा की बात करेंगे।

रे कौन रोकता है पीछे से,
हमको अब कौन डरा रहा,
बेखौफ नीडर बेबाक स्वर,
सब कलम का शृंगार करेंगें,
अब लेखन की मर्यादा में,
बस मर्यादा की बात करेंगे।

अन्जान पथिक को पाकर द्वार,
हम परिचय करते सरोकार,
विवशता के इस महासिन्धु में,
हम युवा सदा सम्मान करेंगें,
अब लेखन की मर्यादा में,
बस मर्यादा की बात करेंगे।

कुछ स्वप्न देखने की आशा,
सागर के गहराई सी भाषा,
जीवन हो जाये जो जीवन गाथा,
तो हिन्दी पर अभिमान करेंगें,
अब लेखन की मर्यादा में,
बस मर्यादा की बात करेंगे।

जो जग की है सर्व कल्याणी,
जननी ह्रदय की मधुरिम वाणी,
हँस मानस के इस महामरण में,
कुछ परिन्दे फिर उड़ान भरेंगें,
अब लेखन की मर्यादा में,
बस मर्यादा की बात करेंगे।

अँन्ध उर का काजल जल,
खिल उठा ज्योति शतदल,
मृदुल स्पर्श लगे हर पल,
इस पर अब विचार करेंगे,
अब लेखन की मर्यादा में,
बस मर्यादा की बात करेंगे।।
       ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

प्रिये तुम्हारी मित्रता को

प्रिये। तुम्हारी मित्रता को आज,
मै स्वीकार करता हूँ।
नहीं पहचानता तुमको,
फिर भी बात करता हूँ।
प्रिये। तुम्हारी मित्रता को आज,
मै स्वीकार करता हूँ।

दोस्त बन कर रहूँ तुम्हारा,
यह करार करता हूँ,
रहे हर पल होठों हँसी,
दर्द का बंटाधार करता हूँ,
प्रिये। तुम्हारी मित्रता को आज,
मै स्वीकार करता हूँ।

है जन्म-दिन आज तुम्हारा,
इसकी सौगात भरता हूँ,
जियो हजारों साल तुम,
यही कामना बार बार करता हूँ।
प्रिये। तुम्हारी मित्रता को आज,
मै स्वीकार करता हूँ।

आन बान मान मिले हर जगह,
ऐसी दुआ सौ बार करता हूँ,
मंजिल सोहरत मिले तुमको,
"अतुल्य" वैभव नाम करता हूँ,
प्रिये। तुम्हारी मित्रता को आज,
मै स्वीकार करता हूँ।

गर तू आरती है दीप की,
तो तेल बाती प्रकाश भरता हूँ,
स्वयं की मित्रता भेंट आज,
तुमको उपहार करता हूँ
प्रिये। तुम्हारी मित्रता को आज,
मै स्वीकार करता हूँ।

नहीं पहचानता तुमको,
फिर भी बात करता हूँ,
प्रिये। तुम्हारी मित्रता को आज,
मै स्वीकार करता हूँ,
प्रिये। तुम्हारी मित्रता को आज,
मै स्वीकार करता हूँ।।
       ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

किसी ने कहा

किसी ने कहा की चाँद बनो,
तो किसी ने कहा की सूरज,
किसी ने कहा की दीप बनो,
तो किसी ने कहा सितारे।

किसी ने कहा की कनक बनो तुम,
तो किसी ने कहा की मणि,
किसी ने कहा की रजत बनो तुम,
तो किसी ने कहा कि जूगूनू।

ना ख्वाहिश है मेरी चाँद की,
ना चाहत है सूरज बनने की,
ना ही लौ हूँ मै दीपक की,
ना चमक है मुझमें तारों की।

ना आभा कनकों की बनना,
ना ही किरण मणियों की,
ना ही पुंज होना रजतों की,
ना ही टिमटिम जूगूनू की।

सबने अपनी अपनी बात रखी थी,
पूछ ना सके कभी मेरे दिल की,
सबने अपनी अपनी कह डाली,
सुन न सके रूदन मेरे दिल की।

दिल में इक अरदास है मेरे,
बस एक कोहिनूर बनने की,
अगर पड़ा रहूँ मैं कोने में भी,
तो हौसला हो चमक रखने की॥
             ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

मुरली तेरी करै पुकार

मुरली तेरी करै पुकार,
माधव तेरी जय जयकार।

मधुर भाव है जिसके तन में,
प्रेम छलकता जिसके मन में,
स्वर्ग बनाया जिसने जीवन,
उसका है यह नूतन गान,
करुणामयी सुन्दर चंचल,
जगती का यह नया वितान,
आगे जिसके फिके पड़ गये,
जीवन के सारे अधिकार,
मुरली उसकी करै पुकार,
माधव तेरी जय जयकार॥

ह्रदय सदा पास ही जाता,
ऐसा है कुछ दिल का नाता,
कानन कुण्डल मणियन माला,
जलती रहती प्रेम की ज्वाला,
अन्तस के इस ह्रदय गगन में,
उन्माद बढ़ा जाता रे मन में,
जीवन को मथने की पीड़ा,
अब हर पल होती साकार,
मुरली तेरी करै पुकार,
माधव तेरी जय जयकार।

चंचल किशोर सुन्दरता का,
करता रहता हूँ रखवाली,
श्यामल शरीर कोमल पग पर,
भारी है अधरों की लाली,
जिनके चरणों में पड़कर,
इठलाती रहती हरियाली,
उस विश्व कमल के रजनी के,
मोह-माया का करै विचार,
मुरली तेरी करै पुकार,
माधव तेरी जय जयकार।

सुरभित लहरों की छाया में,
बस रही यह कैसी प्रीत,
घर से लेकर मन मंदिर तक,
गुँजते रहते है अब गीत,
भूल कर सारे दृश्यों को,
तुम्हें निखारता बारम्बार,
कैसे तुम्हारा हो जाऊँ मैं,
करता रहता बस यही विचार,
मुरली तेरी करै पुकार,
माधव तेरी जय जयकार।

चल पड़ा अब ह्रदय हमारा,
बनकर एक पथिक अशान्त,
तुमसे मिलने को हूँ व्याकुल,
फिर भी दिखता रहता शान्त,
जीवन के इस लघु सागर में,
चिर परिचित नाम घनश्याम,
शीतल-शीतल मद्धम पवनों से,
समझा दो सारा जीवन सार,
मुरली तेरी करै पुकार,
माधव तेरी जय जयकार।।
           ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

नैनन के बान

नैनन के बान चला सजनी,
पिय को यूँ खूब रिझावत है।
व्याकुल पिय के नैना भी है,
जो बार बार लड़ी जावत है॥

बैठि अटारी जब जब सजनी,
यूँ मन्द मन्द मुस्कावत है।
तब तब पिय के दिल में अपना,
सुन्दर सा चित्र बनावत है॥

चित्रों की इस नगरी में  अब,
पिय को अपने हर्षावत है।
हर्षित नगरी में फिर सजनी,
अपने पिय के मन भावत है॥

नैनन के बान चला सजनी,
पिय को यूँ खूब रिझावत है॥
             ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

माँ तेरे आँचल में

माँ तेरे आँचल में फिर से,
सो जाने को दिल करता है॥

उलझे सुलझे इस जीवन में,
जब मन भटकने लगता है,
दुनिया के इस झंझावातों से,
कही दूर जाने का मन करता है,
माँ तेरे आँचल में फिर से,
सो जाने को दिल करता है॥

कम ताप वाली बस्ती छोड़कर,
तेरी उस अद्भुत सी दुनिया में,
जिसमें बस सूकून पलता है,
उसमें आने को जी करता है,
माँ तेरे आँचल में फिर से,
सो जाने को दिल करता है॥

कामयाबी साथ चला करती है,
पानी में भी आग लगा करती है,
सारी दुआयें दौड़ती आती है,
जब माथे पर हाथ फिरता है,
माँ तेरे आँचल में फिर से,
सो जाने को दिल करता है॥

अक्सर बिगड़ी बिगड़ी बातें होती,
दुनिया जज्बात कहा समझती है,
यह बुझे कभी ना जीवन दीप,
ममतामृत पीने को जी करता है,
माँ तेरे आँचल में फिर से,
सो जाने को दिल करता है॥

जिन्दगी चलती रहती है,
सूरज निकलता ढलता है,
फिर भी तेरी गोदी में,
पड़ा रहने को जी करता है,
माँ तेरे आँचल में फिर से,
सो जाने को दिल करता है॥

फूलों की राह बहूत आसान,
पर काटों की बहूत कठीन है,
फिर भी दोनों पर उँगली पकड़,
संग चलने को जी करता है,
माँ तेरे आँचल में फिर से,
सो जाने को दिल करता है॥
            ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

कुछ दोहे

जरा सम्भल कदम बढ़ै, काम बने आसान।
माता शिशु को देति है, अच्छा अच्छा ज्ञान॥1

रे अच्छी शिक्षा लीजिए, अच्छा लीजै मान।
अच्छे अच्छो से करो, बस अपनी पहचान॥2

न करौ कोई काम तुम, नहीं रहै जब ज्ञान।
ज्यादा धन अज्ञान का, कर देता नुकशान॥3

न रहै कोई ज्ञान तो, करौ अथक प्रयास।
जब तक अपने पास में, ना आयै सब ज्ञान॥4

बढ़ बढ़ कर जब दुख मिलै, होवे किस पर नाज।
दुख सिमटै अब सुख मिलै, कर ऐसा कुछ काज॥5

जीवन जीवन रटत है, चल बताऊँ इक राज।
जीवन निधि बेमोल है, सुख दुख का सब साज॥6

नफरत न मन राखीये, करिये तनिक विचार।
प्रेम भाव सद्भाव ही, जीवन का है सार॥7
                                ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

आप और दीपक ज्योति : भोजपूरी

अँधेरा मन में होखे त उजाला लाई,
तेल बाती लौ के सामन्जस बिठाई,
अपना गरीबखाना में दिया जलाई,
फिर अन्हरियाँ रात बईठल बिताई,
अँधेरा मन में होखे त उजाला लाई॥

शीतल चाँद अऊर मनवा चकोर होई,
घी तेल से बनल खाना जी ललचाई,
जब खेत में खेतिहर खेत खोदिहे,
ईंट पाथर भी पेट में जाते पच जाई,
अँधेरा मन में होखे त उजाला लाई॥

मधुर मनोहर त भरले बा सब दिन,
बाचल दिन आके फिर जी ललचाई,
पीपल नीम महुआ देख जीया जुड़ाई,
अपना गरीबखाना में दीया जलाई,
अँधेरा मन में होखे त उजाला लाई॥

अन्जान डगर पर बिचार कईल जाई,
खुद उठ सीखल अऊर सम्भलल जाई,
साहस जस तेल दिल में भरत जाई,
फिर कर्म दिया हरदम जलावल जाई,
अँधेरा मन में होखे त उजाला लाई॥

जब सर्द रात में नंगे बदन लहू सन जाई,
मौत-आगोश में सगरो नजारा खो जाई,
तब रूह से "अतुल" के माटी के खुश्बू आई,
अपना गरीबखाना में एगो दिया जलाई,
साथी अँधेरा मन में होखे त उजाला लाई॥
                       ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

अलग दुविधा

दुविधा दुविधा सब दुविधा है,
अब किसकी मैं आवाज लिखुँ।

क्या आवाज लिखुँ उस बच्चे का,
जो सड़क पर जाकर लेटा है।
क्या विरह लिखुँ उन पत्तों का,
जो गिरा पड़ा है और सुखा है।
क्या उन गलियों की बात लिखुँ,
जो देह बेचकर अब खाता है।
क्या उस नेता का ध्येय लिखुँ,
जो स्वार्थसिध्द को जाता है।
सब ज्ञात तुझे आभास तुझे,
किस बात का अब मैं नाज लिखुँ।
दुविधा दुविधा सब दुविधा है,
अब किसकी मैं आवाज लिखुँ।

क्या कहानी लिखुँ उस बेटे की,
जो बाप के रिस्तों को ना समझे।
क्या व्यथा लिखुँ उस माता की,
जो अपना ही बच्चा खो बैठे।
क्या लिखुँ शब्द जिनसे मिलकर,
कई तरह के अब तक ग्रंथ लिखे।
क्या लिखुँ उस जीवन शैली को,
जो पहले डाकू फिर सन्त बने।
क्या लिखुँ उन जज्बातों को अब,
जो भारत माँ की रक्षा में अड़े।
दुविधा दुविधा सब दुविधा है,
अब किसकी मैं आवाज लिखुँ।
               ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

हार गया मन तुझे बुलाकर

जगे सपनों को फिर सुलाकर,
हार गया मन तुझे बुलाकर।

काँटो से भरकर राहों को,
आँसू की लड़ियाँ बिखराकर,
अर्थी निकाली है हमने,
कोरे पन्ने पर शब्द सजाकर,
दर्दों का आलिंगन कर लूँ,
खुशियों को पैगाम बनाकर,
देख अभी भी काम बचा है,
कर लूँ अपनी सांस बचाकर,
यूँ सपनों को फिर सुलाकर,
हार गया मन तुम्हें बुलाकर।

क्षुधा पिपासा मिथ्या कर दे,
जीवन की टंकार बनाकर,
भ्रमित हुआ अविराम दॄश्य यह,
मन ही मन खुद को उलझाकर
सर्द हवाओं में सिकुड़ा हूँ,
अभी सुनहरा घाम बनाकर,
यूँ सपनों को फिर सुलाकर,
हार गया मन तुम्हें बुलाकर।

धार बनी रहने दो दिल पर,
हथियारों को यूँ बिखराकर,
एक विजय से दम्भ न भरना,
कुछ रखो अभी संग्राम बचाकर,
तुम्हें तुम्हारा जगत मुबारक,
है पूजा तुम्हें भगवान बनाकर,
खुश रहना और रखना सबको,
मेरे गीतों का संसार बनाकर,
यूँ सपनों को फिर सुलाकर,
हार गया मन तुम्हें बुलाकर।

जो मुझको न समझ सका था,
कैसे समझाउँ मैं बात बनाकर,
जब बिना गीरे ही चोट लगी तो,
कैसे आँसू निकालू दर्द बताकर,
आज उसे पराया कैसे कह दूँ,
जिसे अपनाया गले लगाकर,
नहीं नहीं यह भ्रम है मेरा,
कैसे कहूँ मैं सत्य ठुकराकर,
यूँ सपनों को फिर सुलाकर,
हार गया मन तुम्हें बुलाकर।

मन मेरा अब रुदन करता,
आँखो को अब झील बनाकर,
सारे सपने सपने हो गये,
सपनों का संसार बनाकर,
लिखते लिखते कलम रुक गयी,
भावनाओं का हार बनाकर,
जो कल तक हँस कर बोल रहे थे,
आज चले सब मुह घुमाकर,
यूँ सपनों को फिर सुलाकर,
हार गया मन तुम्हें बुलाकर।

सभी पराये दिख रहे जब,
कोई तो अपनाये अपना कहकर,
बने हितैषी मन भीतर से,
नित्य सहज रज अपनी तजकर,
ऐसे भी उन अपनों के कारण,
जीता हूँ यह जग विसराकर,
उन पर आँच न आने दुँगा,
समर्पण करता मैं देह जलाकर,
यूँ सपनों को फिर सुलाकर,
हार गया मन उसे बुलाकर॥
                 ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

जुवेनाईल जस्टिस : एक युवा अभिव्यक्ति

घर में ही गद्दार बहुत है घर में आग लगाने को,
राजनीति खड़ी पड़ी है उनको न्याय दिलाने को।

वहशी दरिन्दों को राजनीति ने इस कदर से पाला है,
डरते नहीं जो न्याय से इसको शर्मशार कर डाला है।
ना जाने कैसे रूप लिये वो आजाद फिजा में घुम रहे है,
डेढ़ सौ करोड़ की आबादी में गलत दहलीजें चुम रहे है।
न्याय की परिभाषा से वो तैयार है आग लगाने को,
राजनीति खड़ी पड़ी है उनको न्याय दिलाने को॥

वोट बैंक की खातिर नेता अन्याय को ही बाँट रहे है,
जाति धर्म कौम एकता में भारत को भी छाँट रहे है।
हम लगे हुये है देश की एकता और न्याय अपनाने में.
और राजनीति लगी हुयी है और आतंक पनपाने में।
अब न्यायिक परिभाषा बदलो रे सच से सच दिखाने को,
घर में ही गद्दार बहुत है घर में आग लगाने को॥

एक प्रश्न मैं पुछ रहा हुँ राजनीति के लालों से,
क्या उम्र मायने रखती है कौम में दहशत फैलाने को।
दरिन्दे तो खड़े पड़े है एक तरफ दहशतगर्दी मचाने को,
और तुम लगे हुये हो वोट बैंक और उनको आजाद कराने को।
घर में ही गद्दार बहुत है घर में आग लगाने को,
राजनीति खड़ी पड़ी है उनको न्याय दिलाने को।

बहूत हुआ यह प्यारवाद न्याय नहीं अपराधी बचाने को,
सच से सच का करो सामन फिजा की लाज बचाने को।
न्यायिक परिभाषा बदलो, है उम्र नही अपराध बताने को,
कुछ ऐसा करो की स्वप्न भारत हो अमन फिजा दिखाने को।
घर में ही गद्दार बहुत है घर में आग लगाने को,
राजनीति खड़ी न हो अब उनको न्याय दिलाने को।
राजनीति न अब खड़ी हो उनको न्याय दिलाने को,
गर खड़ी हो अब से तो रास्ता दिखाये बस तिहाड़ जाने को॥
                                                 ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

ख्वाब : भोजपूरी

साथी जब आहट होखे तब ख्वाब देखीं,
जिनगी में सिमटल सारा जहान देखी।

सालो साल रंगल बा जिनगी के रंग में,
देखे के अब एह रंगन के मिशाल देखीं।
कुछ भुलल भटकल याद में फिर से,
अपना जिनगी के कुछ आसार देखीं।
एह किराया के जिनगीं में अब फिर,
दू पल अपना जिनगी के बितान देखीं।
जिनगी के कागज हमेशा कोरे रही,
असल जिनगीं के तनी पहचान देखीं।
जब आहट होखे तब ख्वाब देखीं,
जिनगी में सिमटल सारा जहान देखी॥

रिस्तन के तह में धूल जम गईल साथी,
अब रिस्ता के दाग धुल मिटाय देखीं।
असली नकली के लड़ाई त चलते रही,
सही गलत में अब अन्तर हजार देखीं।
"अतुल" धड़कते रहिहन वक्त लम्हा बन,
हर सांस में आपन नाम पहचान देखीं।
जब आहट होखे तब ख्वाब देखीं,
जिनगी में सिमटल सारा जहान देखी॥

खामोशी त गुनगुनईते रही सपना में,
तनी बहकत सातों सुर के तान देखीं।
महकत इरादा और ए तड़पते वादा के,
ख्वाहिश के बँधल पट्टी हटाय देखी। 
भले केहू के हुनर चोरी इरादा नेक होखे,
धोखा देबे के बा त धोखा तनी खाय देखी।
अगर जले के मन बा सूरज जश ए साथी,
त पहिले एगो त दिया खुदे जलाय देखी।
जब जब आहट होखे तब तब ख्वाब देखीं,
अपना जिनगी में सिमटल सारा जहान देखी॥

जे कुछ भी चलत रहेला मन के दरिया में,
हमरा भाषा में हरदम ओकर उबाल देखीं।
एह दुनियाँ में त सब कुछ छुपावल जाता,
देखे बा त सच्चाई के शीशा लगाय देखीं।
कहला और कईला में त बहूत फर्क होला,
पहिले दिल के उलझन त मिटाय देखीं।
विरासत में हमरा के कूछ मिलल नईखें,
आँसू गम नमीं से सँजल हमार जहा देखीं।
ए साथी जब आहट होखे तब ख्वाब देखीं,
अपना जिनगी में सिमटल सारा जहान देखी॥
                               ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

वो रात सुहानी बीत गयी

वो रात सुहानी बीत गयी,
तारों की महफिल छुट गयी।
जो जुगुनु बन साथ चली थी,
वो रात भी अब तो रूठ गयी।
जिन सकरी गलियों में मैनें,
चलना ढलना सीखा था।
उन गलियों के सपनों की,
मधुर मलय की यादें लुट गयी।
रिमझीम रिमझीम बरसातों में,
जो जगमग करती रातें थी।
उन सपनों की सारी बातें,
सब बारीश संग धुल गयी।
नमी पाकर कुछ पुष्प उगे थे,
उन पुष्पों की किसलय फूट गयी।
कलीं पुष्प की सारी खुश्बू,
अहसासो में ही लुट गयी।
अब रोने धोने से क्या होगा,
जो बीत गयी वो रीत गयी।
प्राची अब रे मुस्काती है,
पिछली रात भी छूट गयी।
इकट्ठा कर बीतीं बातों को,
आहो पनाहों की अब रूत गयी।
है दोपहरी अब रेत चमकती,
उसमें भी मौजूदगी छूट गयी।
एक दीप जलाया मन मंदिर में,
उसकी भी बाती अब रूठ गयी।
घने अन्धेरों को खिसकाने की,
चाहत मन को लूट गयी।
काँट बधे कोमल पग ने,
अब विवशता का रूप लिया।
देखो नींद भी मुझे सुलाकर,
एक बार फिर जीत गयी।
वो रात सुहानी बीत गयी,
तारों की महफिल छूट गयी॥
             ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

चढ़ पहाड़ के उच्च शिखर

चढ़ पहाड़ के उच्च शिखर पर,
जिसने भी ललकारा है।
सच कहता हूँ दुनिया वालों,
उसके पतन का यह नारा है॥

जिसके सीने में विजयश्री की,
हरदम जलती ज्वाला है।
वन्दे मातरम इन्कालाब की,
उठती हरपल जयकारा है।
चढ़ पहाड़ के उच्च शिखर पर,
जिसने भी ललकारा है।
सच कहता हूँ दुनिया वालों,
उसके पतन का यह नारा है।

बढ़ते चलो काँटों के राही,
हिन्द शेरों की पुकारा है।
न झुकने वालों वीरों को,
भारत माँ ने ऐसे सँवारा है।
चढ़ पहाड़ के उच्च शिखर पर,
जिसने भी ललकारा है।
सच कहता हूँ दुनिया वालों,
उसके पतन का यह नारा है।

कुरूक्षेत्र सरहद पार बनेगा,
भारत का विश्वास हमारा है।
जन गण मन अधिनायक में,
कहता काबूल कान्धार हमारा है।
चढ़ पहाड़ के उच्च शिखर पर,
जिसने भी ललकारा है।
सच कहता हूँ दुनिया वालों,
उसने अपने मौत को पुकारा है।

खत्म करो आतंकवाद को,
ऐसा जारी फरमान बेचारा है।
सरहद के वीरों ने तब तक,
भुख प्यास को दुत्कारा है।
चढ़ पहाड़ के उच्च शिखर पर,
जिसने भी ललकारा है।
सच कहता हूँ दुनिया वालों,
उसके पतन का यह नारा है॥

राष्ट्र भक्तों ने हरदम देखों,
भेद-भाव जाति-पाति के नकारा है।
राष्ट्रभक्ति राष्ट्र प्रेम का जिनको,
गीत गान ही प्यारा है।
चढ़ पहाड़ के उच्च शिखर पर,
जिसने भी ललकारा है।
सच कहता हूँ दुनिया वालों,
उसके पतन का यह नारा है॥
                 ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

प्रेम निपुण है ज्ञान कुशल

जिसके सुरीलें रागों में तितली,
अपना भी राग मिलाती है,
जिसके सम्मोहन की आँधी में,
पलकें भी स्थिर हो जाती है,
वो प्रेम निपुण है ज्ञान कुशल,
नित काव्य गंग में लहराती है।

यादों के उर उमंग बीच जिसकी,
नैन व्याकुलता दिख जाती है,
जिसके लिये अश्रु वर्षा में,
यादों की दिया जल जाती है,
वो प्रेम निपुण है ज्ञान कुशल,
नित काव्य गंग में लहराती है।

जब नवल मकरन्द मिलते है,
तब कलिका मुस्काती है,
उपवन उपवन कलीं कलीं,
अब खुश्बू जिसे बुलाती है,
वो प्रेम निपुण है ज्ञान कुशल,
नित काव्य गंग में लहराती है।

चंचल मगन मस्त पुरवईया,
अब संदेशा जिसका लाती है,
जो यादों की अमराई में हरद्म,
धुँधली परछाई बन जाती है,
वो प्रेम निपुण है ज्ञान कुशल,
नित काव्य गंग में लहराती है।

जो ठहरे बिखरे जीवन में,
अमिट निशानी बन जाती है,
निर्मल मन प्रेम पराधिन हो,
हर सम्बोधन मन भा जाती है,
वो प्रेम निपुण है ज्ञान कुशल,
नित काव्य गंग में लहराती है।

घोर तिमीर में दीप किरण बन,
जो खुद हमेशा जल जाती है,
मन मंदिर में अन्तर्मन को,
गीतों से सदा सजाती है,
वो प्रेम निपुण है ज्ञान कुशल,
नित काव्य गंग में लहराती है।

ना जाने कितना सफर कटा,
ना जाने कितना अभी बाकी है,
"अतुल" के गणित विचार की,
जो अविरल चिता जलाती है.
वो प्रेम निपुण है ज्ञान कुशल,
नित काव्य गंग में लहराती है।
           ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

लड़ी आँसुओं की..

जो लड़ी आँसुओं की दिल में दाखिल ना हुयी थी,
वो घड़ी आँसुओं के कातिलों को हासिल ना हुयी थी॥

मैं न जाना किस तरह से आँधियाँ वहाँ पर आ गयी थी,
दिल के दरिया में आज तो लहरें भी गोता खा गयी थी,
यादों की भँवर में एक धुँधली छवि फिर छा गयी थी,
मुड़ कर देखा दिल में अपने वो कहर बरपा गयी थी,
जो लड़ी आँसुओं की दिल में दाखिल ना हुयी थी,
वो घड़ी आँसुओं के कातिलों को हासिल ना हुयी थी॥

जिन आँखों में कभी हौसलें पर हौसलें ही पल रहे थे,
उस वक्त की दरिन्दगीं में उन्मादी दिये जल रहे थे,
नयी पीढ़ियों के बहादूर जब नये सपन ही गढ़ रहे थे,
तब उन आखों की अदावत कर हिमाकत सो गयी थी,
जो लड़ी आँसुओं की दिल में दाखिल ना हुयी थी,
वो घड़ी आँसुओं के कातिलों को हासिल ना हुयी थी॥

आँख से गिरते ही आँसू कुछ ना कुछ जब पुछते थे,
खुशियों के बौर भी तब दिल को ना ही रूचते थे,
बेसमय आकर ही मेरे दिल का पट खटखटा गयी थी,
यादों की अमराई काँट बन जिन्दगी में छा गयी थी,
जो लड़ी आँसुओं की दिल में दाखिल ना हुयी थी,
वो घड़ी आँसुओं के कातिलों को हासिल ना हुयी थी॥

वो धुँधली छवि फिर से काँटे पिरोकर ला रही थी, 
जो समय के इस चाल में जिन्दगीं उलझा रही थी,
जब सुख दुख की किरण होली दिवाली मना रही थी,
तब धीरे धीरे मेरी जिन्दगीं जहाँ को छोड़ जा रही थी,
जो लड़ी आँसुओं की दिल में दाखिल ना हुयी थी,
वो घड़ी आँसुओं के कातिलों को हासिल ना हुयी थी॥
                                        ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

खिल गयी है राह की कलीं

यूँ लगा कि खिल गयी है राह की कलीं,
जो हल्दियों की गाँठ तुमको सौपने चलीं।

घर सुना सुना सा है सुना मैं यार की,
उदासियों में जी रहा सजा है प्यार की,
अकेले तेरा बैठना आदत है शाम की,
सजा भी ऐसी मिल रही है किस गुनाह की,
यूँ लगा कि खिल गयी है राह की कलीं,
जो हल्दियों की गाँठ तुमको सौंपने चलीं।

महफिलें सजाता है वो अब भी याद की,
बुलाता है अभी भी तुझे कसम यार की,
तकलीफ है मुझे हकीकत कह ना पाने की,
बात रुक जातीं है अधर पर आकर लबों की,
यूँ लगा कि खिल गयी है राह की कलीं,
जो हल्दियों की गाँठ तुमको सौपने चलीं।

रहनुमाई कर ले दोस्त वहाँ तक जाने की,
जो मौका बन रहा आँसू ढह न जाने की,
दरियाँ तो नहीं हूँ मै सागर मिलाने की,
दिल का दर्द है यही बस सह न पाने की,
यूँ लगा कि खिल गयी है राह की कलीं,
जो हल्दियों की गाँठ तुमको सौपने चलीं।

गोरियाँ तो कर गयी शरारतें है गाँव की,
अंजूरी पर अंजूरी धरे व्यथा विचार की,
तुम्हारे द्वार पर खड़ा लिये कथा मैं हार की,
तिमिर बेला है बनो तुम चाँदनी ही चाँद की,
यूँ लगा कि खिल गयी है राह की कलीं,
जो हल्दियों की गाँठ तुमको सौपने चलीं।

लौंट करके है न आयी वो रजा विचार की,
दहलिजें पार कर गयी है वो बेवफाई की,
अब करो तुम कोशिशें उसे भुलाने की,
दुआ है माँगता "अतुल" तेरे ही जीत की,
यूँ लगा कि खिल गयी है राह की कलीं,
जो हल्दियों की गाँठ तुमको सौपने चलीं।
                       ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

नया साल आया

जिन्दगी में आज फिर एक मुकाम आया,
हमारी उम्मीदें जगाने नया साल आया॥

फिर से दिल की खुशियाँ दर्शाने को,
लोगों के उमंग में नाचने नचाने को,
होली दिवाली एक बार फिर मनाने को,
ईंद बकरीद लाया मिलने मिलाने को,
दशहरा लोगों को फिर से हर्शाने को,
जिन्दगी में आज फिर एक मुकाम आया,
हमारी जिन्दगीं में फिर नया साल आया॥

कुछ फिर से नये पावन काज कराने को,
कुछ को बन्धन में बधने और बधाने को,
नये रिस्ते बनाने और पुराने को निभाने को,
रिस्तों में पड़ी दरारों को फिर से मिटाने को,
एकता का पाठ दुबारा फिर से पढ़ाने को.
जिन्दगी में आज फिर एक मुकाम आया,
सहज रिस्तों को बताने नया साल आया॥

पुरानी गलतियों को फिर से भुलने भुलाने को,
नया रास्ता और खुद की मंजिल बनाने को,
दुख से लड़ने  को और हौसला उपजाने को,
सुख के पलों को एक बार फिर सजाने को,
सुख दुख में समानता के भाव दर्शाने को,
जिन्दगी में आज फिर एक मुकाम आया,
हमें फिर से गले लगाने नया साल आया॥

कुछ नये लोगों से फिर  मिलने मिलाने को,
कुछ नये साथियों संग समय बिताने को,
कुछ नये लोगो से तजुर्बें सिखने सिखाने को,
कुछ पल अपनों के साथ फिर से बिताने को.
छोटों को प्यार बड़ो से विनय दिखाने को,
जिन्दगी में आज फिर एक मुकाम आया,
फिर से धड़कन धड़काने नया साल आया॥

गीत गजल फिर से सुनने और सुनाने को,
जीवन गान फिर से गाने और गुनगुनाने को,
जीवन में उतार चढ़ाव फिर से दिखाने को,
हर गलतियों का सबब सिखने सिखाने को,
उजड़ा चमन एक बार फिर से बसाने को,
जिन्दगी में आज फिर एक मुकाम आया,
उत्सव उपहार लिये फिर नया साल आया॥

आशा निराशा एक बार फिर दिखाने को,
जीत हार की परिभाषा फिर से समझाने को,
हास परिहास की भाषा का आभास कराने को,
दिन रात कि नियमितता फिर से समझाने को,
प्रेम करूणा नेह का आभास फिर से कराने को,
हौसलों का पंख एक बार फिर से लगाने को,
जिन्दगी में आज फिर एक मुकाम आया,
लिखने फिर इतिहास देखो नया साल आया॥

सुर्य का तेज और तारों की चमक दिखाने को,
चाँद गगन अम्बर का विश्वास दिलाने को,
ग्रह गोचर की दशा एक बार फिर दर्शाने को,
जिन्दा को जिन्दा अहसास फिर से कराने को,
अधियारी रातों में दीप-ज्योति फिर जलाने को,
"अतुल" की कागज कलम स्याह बन जाने को,
जिन्दगी में आज फिर एक मुकाम आया,
आज नया साल नया साल नया साल आया॥
                           ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"