हार गया मन तुझे बुलाकर

जगे सपनों को फिर सुलाकर,
हार गया मन तुझे बुलाकर।

काँटो से भरकर राहों को,
आँसू की लड़ियाँ बिखराकर,
अर्थी निकाली है हमने,
कोरे पन्ने पर शब्द सजाकर,
दर्दों का आलिंगन कर लूँ,
खुशियों को पैगाम बनाकर,
देख अभी भी काम बचा है,
कर लूँ अपनी सांस बचाकर,
यूँ सपनों को फिर सुलाकर,
हार गया मन तुम्हें बुलाकर।

क्षुधा पिपासा मिथ्या कर दे,
जीवन की टंकार बनाकर,
भ्रमित हुआ अविराम दॄश्य यह,
मन ही मन खुद को उलझाकर
सर्द हवाओं में सिकुड़ा हूँ,
अभी सुनहरा घाम बनाकर,
यूँ सपनों को फिर सुलाकर,
हार गया मन तुम्हें बुलाकर।

धार बनी रहने दो दिल पर,
हथियारों को यूँ बिखराकर,
एक विजय से दम्भ न भरना,
कुछ रखो अभी संग्राम बचाकर,
तुम्हें तुम्हारा जगत मुबारक,
है पूजा तुम्हें भगवान बनाकर,
खुश रहना और रखना सबको,
मेरे गीतों का संसार बनाकर,
यूँ सपनों को फिर सुलाकर,
हार गया मन तुम्हें बुलाकर।

जो मुझको न समझ सका था,
कैसे समझाउँ मैं बात बनाकर,
जब बिना गीरे ही चोट लगी तो,
कैसे आँसू निकालू दर्द बताकर,
आज उसे पराया कैसे कह दूँ,
जिसे अपनाया गले लगाकर,
नहीं नहीं यह भ्रम है मेरा,
कैसे कहूँ मैं सत्य ठुकराकर,
यूँ सपनों को फिर सुलाकर,
हार गया मन तुम्हें बुलाकर।

मन मेरा अब रुदन करता,
आँखो को अब झील बनाकर,
सारे सपने सपने हो गये,
सपनों का संसार बनाकर,
लिखते लिखते कलम रुक गयी,
भावनाओं का हार बनाकर,
जो कल तक हँस कर बोल रहे थे,
आज चले सब मुह घुमाकर,
यूँ सपनों को फिर सुलाकर,
हार गया मन तुम्हें बुलाकर।

सभी पराये दिख रहे जब,
कोई तो अपनाये अपना कहकर,
बने हितैषी मन भीतर से,
नित्य सहज रज अपनी तजकर,
ऐसे भी उन अपनों के कारण,
जीता हूँ यह जग विसराकर,
उन पर आँच न आने दुँगा,
समर्पण करता मैं देह जलाकर,
यूँ सपनों को फिर सुलाकर,
हार गया मन उसे बुलाकर॥
                 ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

No comments: