प्रेम निपुण है ज्ञान कुशल

जिसके सुरीलें रागों में तितली,
अपना भी राग मिलाती है,
जिसके सम्मोहन की आँधी में,
पलकें भी स्थिर हो जाती है,
वो प्रेम निपुण है ज्ञान कुशल,
नित काव्य गंग में लहराती है।

यादों के उर उमंग बीच जिसकी,
नैन व्याकुलता दिख जाती है,
जिसके लिये अश्रु वर्षा में,
यादों की दिया जल जाती है,
वो प्रेम निपुण है ज्ञान कुशल,
नित काव्य गंग में लहराती है।

जब नवल मकरन्द मिलते है,
तब कलिका मुस्काती है,
उपवन उपवन कलीं कलीं,
अब खुश्बू जिसे बुलाती है,
वो प्रेम निपुण है ज्ञान कुशल,
नित काव्य गंग में लहराती है।

चंचल मगन मस्त पुरवईया,
अब संदेशा जिसका लाती है,
जो यादों की अमराई में हरद्म,
धुँधली परछाई बन जाती है,
वो प्रेम निपुण है ज्ञान कुशल,
नित काव्य गंग में लहराती है।

जो ठहरे बिखरे जीवन में,
अमिट निशानी बन जाती है,
निर्मल मन प्रेम पराधिन हो,
हर सम्बोधन मन भा जाती है,
वो प्रेम निपुण है ज्ञान कुशल,
नित काव्य गंग में लहराती है।

घोर तिमीर में दीप किरण बन,
जो खुद हमेशा जल जाती है,
मन मंदिर में अन्तर्मन को,
गीतों से सदा सजाती है,
वो प्रेम निपुण है ज्ञान कुशल,
नित काव्य गंग में लहराती है।

ना जाने कितना सफर कटा,
ना जाने कितना अभी बाकी है,
"अतुल" के गणित विचार की,
जो अविरल चिता जलाती है.
वो प्रेम निपुण है ज्ञान कुशल,
नित काव्य गंग में लहराती है।
           ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

No comments: