खिल गयी है राह की कलीं

यूँ लगा कि खिल गयी है राह की कलीं,
जो हल्दियों की गाँठ तुमको सौपने चलीं।

घर सुना सुना सा है सुना मैं यार की,
उदासियों में जी रहा सजा है प्यार की,
अकेले तेरा बैठना आदत है शाम की,
सजा भी ऐसी मिल रही है किस गुनाह की,
यूँ लगा कि खिल गयी है राह की कलीं,
जो हल्दियों की गाँठ तुमको सौंपने चलीं।

महफिलें सजाता है वो अब भी याद की,
बुलाता है अभी भी तुझे कसम यार की,
तकलीफ है मुझे हकीकत कह ना पाने की,
बात रुक जातीं है अधर पर आकर लबों की,
यूँ लगा कि खिल गयी है राह की कलीं,
जो हल्दियों की गाँठ तुमको सौपने चलीं।

रहनुमाई कर ले दोस्त वहाँ तक जाने की,
जो मौका बन रहा आँसू ढह न जाने की,
दरियाँ तो नहीं हूँ मै सागर मिलाने की,
दिल का दर्द है यही बस सह न पाने की,
यूँ लगा कि खिल गयी है राह की कलीं,
जो हल्दियों की गाँठ तुमको सौपने चलीं।

गोरियाँ तो कर गयी शरारतें है गाँव की,
अंजूरी पर अंजूरी धरे व्यथा विचार की,
तुम्हारे द्वार पर खड़ा लिये कथा मैं हार की,
तिमिर बेला है बनो तुम चाँदनी ही चाँद की,
यूँ लगा कि खिल गयी है राह की कलीं,
जो हल्दियों की गाँठ तुमको सौपने चलीं।

लौंट करके है न आयी वो रजा विचार की,
दहलिजें पार कर गयी है वो बेवफाई की,
अब करो तुम कोशिशें उसे भुलाने की,
दुआ है माँगता "अतुल" तेरे ही जीत की,
यूँ लगा कि खिल गयी है राह की कलीं,
जो हल्दियों की गाँठ तुमको सौपने चलीं।
                       ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

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