वो रात सुहानी बीत गयी

वो रात सुहानी बीत गयी,
तारों की महफिल छुट गयी।
जो जुगुनु बन साथ चली थी,
वो रात भी अब तो रूठ गयी।
जिन सकरी गलियों में मैनें,
चलना ढलना सीखा था।
उन गलियों के सपनों की,
मधुर मलय की यादें लुट गयी।
रिमझीम रिमझीम बरसातों में,
जो जगमग करती रातें थी।
उन सपनों की सारी बातें,
सब बारीश संग धुल गयी।
नमी पाकर कुछ पुष्प उगे थे,
उन पुष्पों की किसलय फूट गयी।
कलीं पुष्प की सारी खुश्बू,
अहसासो में ही लुट गयी।
अब रोने धोने से क्या होगा,
जो बीत गयी वो रीत गयी।
प्राची अब रे मुस्काती है,
पिछली रात भी छूट गयी।
इकट्ठा कर बीतीं बातों को,
आहो पनाहों की अब रूत गयी।
है दोपहरी अब रेत चमकती,
उसमें भी मौजूदगी छूट गयी।
एक दीप जलाया मन मंदिर में,
उसकी भी बाती अब रूठ गयी।
घने अन्धेरों को खिसकाने की,
चाहत मन को लूट गयी।
काँट बधे कोमल पग ने,
अब विवशता का रूप लिया।
देखो नींद भी मुझे सुलाकर,
एक बार फिर जीत गयी।
वो रात सुहानी बीत गयी,
तारों की महफिल छूट गयी॥
             ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

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