खिल रही मौसमों के आने से


                                                               चित्र - गूगल से साभार

जो खिल रही मौसमों के आने से,
वो झर गयी थी कली कल बहाने से,
देखता रहा हूँ उसे सदा से लेकिन,
महक कब तलक आयी है बुलाने से,
आग ने जब छू लिया मेरा दामन,
कभी बुझी भी है शमां जलाने से,
ऐ हवा तुझे क्युँ मिली भटकन,
तू क्युँ ना लगी किसी ठिकाने से,
तू कह ले अपने दिल की लगी,
हाल मत पुछ मेरे गरीबखाने से,
अगर तेरी-मेरी है एक ही मंजिल,
तो चल साथ बनकर नदी मुहाने से,
मुझे तो बस इतना यकीन था,
समझ आयेगी जिन्दगी आजमाने से,
जब-जब आग लगी हो दिल में,
कहाँ बुझी वो किसी के बुझाने से,
आखिर किसको था यहाँ शिकवा,
मेरे अपने घर से चले जाने से॥

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