गरीबी और मर्यादा

                                                             चित्र - गूगल से साभार


क्या बयाँ करू उस गरीब की गरीबी,
जिसने पास ना देखी कभी अमीरी।
कभी लाले पड़ जाते है जिसको पाने दाने को,
कभी रात को सो जाता तरस जाता है खाने को।

उसके भी कुछ सपने पलते है आँखों में,
कुछ अरमानों की जिज्ञासा जिगर में होती है।
फिरता रहता है हरदम चट्टी,चौराहा गलियों में,
हर समय कुछ पाने कि आशा उर में होती है।

आज घुमता रहता है कुछ खाने की आश में,
मिलती है गालियाँ ही उसको हर उबास में।
क्या फितरत है इस जमाने की उसके प्रति,
मैं पुछता हूँ? मैं पुछता हूँ आज सबसे !

क्या उसका गरीब होना ही पाप ही है?
जब ढूढ़ता है काम गरीबी में मजदूर का।
काम मिले या ना मिले आरोप लग जाता है झूठ का,
कुछ लोग उसको डराते है तेवर दिखा अपना रंगरूट का।

आज उसके घर में ना अन्न-दाना है,
मारा-मारा फिर रहा खाने को दाना-दाना है।
मुझे लगता नहीं उसका इस नगर में ठिकाना है,
हर सम्भव आज उसका मजाक बनाता जमाना है।

गरीब है तो उसके गरीबी की भी कुछ मर्यादा है,
इस नगर में जिसका गरीबी में ना कोई सहारा है।
जिस मर्यादा में बँधा ना वो कुछ कर पाता ना कह पाता,
बेबस लाचार बस घुँट-घुँट के द्म भर कर ही रह जाता।

वही गरीब जब तोड. कर बोलेगा अपनी सारी मर्यादा,
तब देखना दुनियाँ में गुजेगा सारा मीडीया जमाना।
जिसका आज चुप्पी साधना ही एक बेहतर तराना है,
"अतुल" की लेखनी की कुछ मर्यादा और इतना बयाँना है।

समझ आये तो समझ लेना क्या तुम्हारी मर्यादा है।
गरीब हूँ तो क्या गरीबी में जीना हक सिर्फ हमारा है?
देखना हो मर्यादा तो खुला इस गरीब के घर का दरवाजा है,
आके देखना गरीब होकर कैसे खुशियाँ लुटाता है॥

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