एक शाम खामोश थी

                                                         चित्र - गूगल से साभार


एक शाम खामोश थी,
दिमाग की उलझन थी,
मैं बैठ अकेला छत पर,
क्षितिज नभ निहार रहा।
किसी गहरें भावों में गुम,
अपने-आप को सुलझा रहा।
अचानक भाव उर में उठे,
ये दिल की सच बता रहा।
कोई आये मेरे पास बैठे,
दो-चार हम बातें करें।
कुछ अपनी वो सुनाये,
कुछ अपनी हम सुनाये।
कुछ उनका मेरे पर हक हो,
कुछ मेरा उन पर हो अधिकार।
पर क्या बात करता अकेला ?,
खुद खामोश निरुत्साही निश्तब्ध।
कहने के लिये तो मैं था वहा,
लेकिन सुनने के लिये थी दिवारें।
उस पल मैं चाहा था कुछ कहना,
पर अपनी वाणी ही साथ नहीं थी।
तब एक बिचार चल पड़ा ह्र्दय में,
जब पड़ू मैं ऐसी विकट स्थिति में।
तब कोई मुझे पढ़ ले मेरे चेहरे से,
और आकर दे दे मुझे दिलासा।
पकड़ ले आकर मेरा हाथ,
अकेला नहीं हूँ ऐसा कहकर।
ऐ जिन्दगीं! क्या तू ऐसा करेगी?
कभी आकर मेरे साथ बैठेगी?
जब जेहन में हौसला कम हो,
क्या तब पकड़ सकेगी हाथ?
जब हारता नजर आउँ तुझसे,
क्या तब तू ढाढस दे पायेगी?

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