सौ लोगों के आदर्शों से नहीं चलते विश्वविद्यालय

सौ लोगों के आदर्शों से नहीं चलते विश्वविद्यालय
                 किसी भी विश्वविद्यालय में छात्र दाखिला लेता है तो यह सोचकर लेता है कि बचपन से अब तक उसने जितने भी सपने देखे थे उन्हें एक नयी ऊचाई मिलेगी, नया आयाम मिलेगा। आज उन्ही विश्वविद्यालयों में शिक्षा के माहौल को खराब किया जा रहा है। छात्रों के भविष्य को अंधेरे में डाला जा रहा।
                  बचपन के दिनों की बाद आती है। शाम का वक्त जैसे ही होता था, सूरज क्षितिज के पार जा चुका होता था और हल्का हल्का अँधेरा आँखों के सामने होता था। कुछ लोग मुहल्ले के इकट्टा हो जाते थे और बातें करना शुरू कर देते थे। बातों बातों में विश्व भर की रोचक जानकारी सुनने को मिल जाती थी। कभी कभी कुछ ऐसे भी तथ्य सामने आ जाते थे, जिनको सुनकर आश्चर्य भी होता था, कभी कभी तो चौक भी जाते थे कि हाँ ऐसा भी होता है, तो कभी कभी अनायास ही मुँह से निकल जाता था "अपने भारत में"। वो ऐसे तथ्य थे जो आज तक किताबों में नहीं छपे और ना ही छपेगें।
                 बात जब विश्वविद्यालयों की व शिक्षा की आती है आज सोचने पर विवश कर देती। इतिहास गवाह है कि नालन्दा तक्षशीला और बीएचयू जैसे संस्थानों में शिक्षा का स्तर पहले क्या था और आज क्या है। आज दिल्ली विश्वविद्यालय जहाँ भारत की सांस्कृतिक गतिविधियों में अपना परचम विश्व में लहरा रहा है तो वहीं दूसरी तरफ दिल्ली का दूसरा प्रतिष्ठित संस्थान जेएनयू बदनामी की मार झेल रहा है।
मैं आज छात्र-राजनीति को देखकर सोच में पड़ जाता हूँ क्या जिस समय विश्वविद्यालय बनाये गये तभी छात्र-राजनीति का गठन हुआ या छात्र-राजनीति संगठन के बाद विश्वविद्यालयों का। पिछले कुछ महिने पहले जेएनयू परिसर के अन्दर दस-बारह लोग इकट्ठा होते है और देश विरोधी नारे लगा देते है। मीडिया उस मुद्दे को देश के सामने उछाल देती है। फिर देश में राजनीति शुरू।
                  कुछ दिन बाद दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रतिष्ठित संसान रामजश के अन्दर कुछ ऐसा ही होता है, "बस्तर माँगे आजादी" की गूँज पूरे देश ने मीडिया के हवाले से सुनी। आज भी आधे लोगों को नहीं पता ये "बस्तर" है क्या चींज। कहीं "बस्ता/बैग" को "बस्तर" नहीं बोल दिये। खैर छोड़िये ये सब। ये सब राष्ट्र की राजनीति और छात्र राजनीति की मिली भगत से ही सम्भव है वरना विश्वविद्यालय परिसर में छात्र-हितों की लड़ाई छोड़कर राष्ट्र के उस क्षेत्र पर नारेबाजी करना जिस क्षेत्र का शिक्षा के सकारात्मक पहलू पर कोई सहयोग नहीं है। वहाँ के छात्र संस्थान परिसर में मौजूद है उनके हर पहलू को सकारात्मक दिशा देने विश्वविद्यालय प्रशासन लगा रहता है।
                  मैं जानना चाहता हूँ उन तमाम लोगों से जिन लोगों ने उन चन्द लोगों के नारेबाजी पर राजनीतिक परिवेष को गरम किया, साहित्यिक लोगों को कलम उठाने पर मजबूर किया। क्या दो-दो लाख से ऊपर की संख्या रखने वाला विश्वविद्यालय परिसर उन चन्द लोगों नारेबाजी से चलता है?? उन लोगों के सहयोग से चलता है???
                 अपने चार साल की जिन्दगी को जो विश्वविद्यालय परिसर में गुजारा हूँ उसका विश्लेषण करूँ तो मुझे तो यही लगता है कि विश्वविद्यालय प्रशासन अपनी हर कोशिश किया जो छात्र-हित में सही और सार्थक रहा है। जबकि छात्र-संगठन सिर्फ और सिर्फ अपनी धाक जमाने , छात्रों को भड़काने, छात्रों को लड़ाने का काम किया है। छात्रों को लड़ाना छोड़िये साब चुनावों में तो छात्र-नेताओं को लड़ते और अस्पतालों के लिए जाते देखा हूँ। ये छात्र-नेता क्या किसी के हक़ की लड़ाई लड़ेगें जो छात्र नेता की कुर्सी पाने के लिए ही लड़ मरे। बहोत से दृश्य ऐसे भी जिनको देखकर मन में होता था कि काश! विश्वविद्यालय प्रशासन अपने प्रशासनिक सीमा के अन्तर्गत होता। अगर होता तो पहला काम ही छात्र-संगठन को दूर करने का कर देता।
                  हाँ एक बात और जितने भी छात्र-संगठन आज है मुझे लगता है उनका गठन उल्टे सीधे कामों को करने के लिए ही हुआ है।
                  दो लाख या उससे ऊपर की छात्र संख्या रखने वाले विश्वविद्यालय या संस्थान उन सौ लोगों पर टिकी नहीं होती। आप उन चन्द सौ लोगों के आदर्शों को विश्वविद्यालय का आदर्श मानने की भूल न कीजिए। विश्वविद्यालय उन सौ लोगों के होने से नहीं बनता बल्कि उन लाखों लोगों को होने से बनता है जो विश्वविद्यालय की मर्यादा को जानते है पहचानते और विश्वविद्यालय की एक नयी पहचान बनाने में पूरी जिन्दगी लगा देते है। दिन-रात अथक परिश्रम करने वाले प्राध्यापकों से चलता है जो छात्रों की जिन्दगी को नया आयाम देने के लिए खून-पसीना एक कर देते है। उस अथक योगदान को ये राजनीति वाले कभी समझ नहीं सकते।
                रही बात मीडिया की तो साहब ये भांड के टट्टू है जिधर इनको फायदा दिखेगा उधर लुढ़क लेगे। जिधर से इनको टिआरपी बढ़ती नज़र आयेगी उधर ही खिसक लेगें। आज आप से फायदा है आप का गुण गायेंगे कल आपके पड़ोसी से फायदा है तो पड़ोसी की तरफ हो जायेगे। इनको एक सीमा और संविधान के दायरे में खड़ा कर दिया गया है जिससे भारत के खिलाफ नहीं जा सकते पर संविधान की शर्तों को हटा दिया जाय तो ये पाकिस्तान को सर पे बिठा सकते हैं। सच कहूँ मीडिया और सोनार कभी अपने माँ बाप के नहीं होते।
                                                                                                                     ©अतुल कुमार यादव

नयन पुकारे

नयन पुकारे सुन लो प्यारे,
माता की आँखों के तारे।
सपने अपने कर लो पूरे,
जीवन हम तुम पर क्यूँ वारे।

जीने का अन्दाज यही है,
मुश्किल तो ये आज सही है।
संघर्षों से भरी है राहें,
तुम राहों के बनो सहारे।

हम हँसते हैं रोते हैं गाते,
फिर भी जीवन जीते जाते,
बच्चों सा हम जिद करते है,
आना लेकर मधुर फुहारे।

खोना मत आभास कभी तुम,
खोना मत विश्वास कभी तुम,
शैल चीर के सुमन खिलेंगे
छोटे-मोटे होते न्यारे न्यारे।

लोग मिलेगें इसी सदी में,
जीवन की इस प्रेम नदी में।
कवि-कविता तो हैं सम्बन्धी,
कुछ में जीते कुछ में हारे।

नयन पुकारे सुन लो प्यारे,
तुम राहों के बनो सहारे।
अपने सपने कर लो पूरे,
यही चाहते है हम सारे।।
          ©अतुल कुमार यादव

रोज गाता रहा गुनगुनाता रहा

रोज गाता रहा गुनगुनाता रहा,
गीत अपनों को' हरपल सुनाता रहा

शाम होती नहीं है यहाँ आजकल,
नब्ज तो देखिये वक्त की चालचल,
चाल चलती रही जिन्दगी की डगर,
ख्वाहिशों से निकलना हमें है निडर,
प्यास कैसे बुझेगी बताओ न तुम,
चार पल जिन्दगी के घटाओ न तुम,
चेहरा सब हकीकत बताता रहा,
रोज गाता रहा गुनगुनाता रहा,
गीत अपनों को' हरपल सुनाता रहा।

हसरतों के दिये हाथ में थामकर,
बैठिये आप खुद अपना मन मारकर,
रौशनी है कहाँ चाँद में रात की,
ख्वाब उगने लगे बात जज्बात की,
एक कतरे मुहब्बत की ये दासता,
दौड़ती जिन्दगी अब बनी रासता,
देख दिल की लड़ी मुस्कुराता रहा,
रोज गाता रहा गुनगुनाता रहा,
गीत अपनों को' हरपल सुनाता रहा।

चार पल के लिए मुस्कुरा दीजिए,
गीत धड़कन को' अपने बना लीजिए,
नेह रस धार में सिन्धु बादल हुआ,
प्यार में है जमाना ये घायल हुआ,
बात दिल की है' दिल से मजा लीजिए,
प्यास दिल की भी अपने बुझा लीजिए,
राह में चाँद सूरज सजाता रहा,
रोज गाता रहा गुनगुनाता रहा,
गीत अपनों को' हरपल सुनाता रहा।।
                          ©अतुल कुमार यादव

AATM-CHINTAN

दिल्ली विश्वविद्यालय में 2013 में दाखिला लिया था और अब समय आ गया दिल्ली विश्वविद्यालय से बाहर निकलने का। आज से लगभग दो साल पहले 24 सितम्बर 2015 को पहली बार शहीद भगत सिंह कॉलेज में कविता प्रतियोगिता में शामिल हुआ था। कविता पाठ करने से पहले ही कुछ लोगों के नाम कुछ लोग सुनाने लगे। एक तरफ लोगों के नाम सुनाये जा रहे थे तो दूसरी तरफ मेरे दिमाग में चल रहा था "नाम में क्या रखा है सचिन भी तो एक नाम ही है तो क्या हम क्रिकेट खेलना छोड़ दे? नहीं यार हमें सचिन की मौजूदगी में सेहवाग बनना पड़ेगा।" पता नहीं इस सोच का कितना असर पड़ा जिन्दगी पर, बस तब से सोच थी कि हर मंच पर नई रचना रखूँ। और इसके लिए मुझे रात रात भर जग जग कर हिन्दी साहित्य को बड़े चेहरों को पढ़ना पड़ा। बहुत से लोगों से मुझे बहुत कुछ सिखना भी पड़ा। आज उसकी ही देन है कि 24 सितम्बर के बाद से दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेजों में 93 जगह (कहानी व कविता प्रतियोगिता का) प्रतिभागी बना, 53 जगह(प्रथम-17, द्वितीय-23 व तृतीय- 13) विजेता रहा। सात जगह से सात्वना पुरस्कार मिला। विश्वविद्यालयी प्रतियोगिता का अंत श्री वेंकटेश्वरा कॉलेज पे हो गया। आगे पता नहीं कहाँ तक ये सफर कैसे चलता रहेगा कुछ कह नहीं सकता। इस सुनहरे सफर में जो साथ रहे! जिनसे कुछ सिखने को मिला! जिनसे गुरु जैसा सानिध्य मिला उनमें प्रथम नाम आता आद० गुरुदेव रामबली गुप्ता 'बली' जी का, रामबली गुप्ता जी की छत्रछाया में गीत लिखने का सौभाग्य मिला, गीत लिखता तो हूँ पर कितना कामयाब हूँ पता नहीं। द्वितीय नाम गुरुदेव श्री Ravi Shukla जी का है। रवि शुक्ला सर जब वाणी परिवार में शुरू शुरू में ग़ज़ल सिखाने का काम करते थे तब मुझे कुछ समझ नहीं आता था मैं शान्त हो जाता था कभी कभी खींज जाता था पता नहीं क्या ये मुफाईलुन फाईलातुन की लड़ी लगायें रहतें हैं बहर सानी करते रहते हैं पर ये शुरूआत की बात है, बाद में तो सब कुछ बदल गया, ग़ज़ल लिखने की थोड़ी बहुत कोशिश करने लगा और बहुत डांट भी लगी रवि सर से। लेकिन डॉट के बावजूद भी कभी गुस्सा नहीं आया पता नहीं क्यूँ। सबसे बड़ी बात गुरुजी ने कभी ग़ज़ल बेबहर नहीं लिखने दिया और आज की हालत ये है कि बिना बहर के ग़ज़ल मुझसे लिखी नहीं जाती। कैसी ग़ज़ल लिख पाता हूँ मुझे खुद नहीं पता। चलते है तीसरे नाम की तरफ। तीसरा नाम आता पवन भैया का। पवन भैया कहने के लिए भैया बाकी का काम गुरु जैसा ही है। मुक्तक से लेकर गीत तक सबसे ज्यादा जिनसे सलाह लिया, सबसे ज्यादा जिनसे बहस किया वो नाम है पवन भैया का। कहानी लिखना सिखाने वाले तीन नाम है किसका नाम पहले लिखूँ समझ नहीं आ रहा, तीनों नाम कुछ इस प्रकार है असित कुमार मिस्र (असित भैया) सौरभ चतुर्वेदी (मनेजर बाबू:) ) अतुल कुमार राय (अतुल भैया)। सिखने को बहुत कुछ मिला इन तीनों नामों से पर थोड़ा अलगाव सा लगता है। एक नाम बीच में छूट गया आशुतोष (आशु भैया) आपको कैसे भूल सकता हूँ। आप ही तो थे जो बेबाक समीक्षक है हमारी रचनाओं के। कसौटी पर रचनायें कैसे कसी जाती है कोई आप से सीखे। आपकी भाषा में बोलूँ तो *जीयतार दरद पर नमक रख के कइसे मारते हैं अऊर नमक छोड़िये घाव पर मरहम कईसे लगाते है ये तो आप से सीखना बाकी है।* आशु भैया की शालीनता देखिये समीक्षा करते वक्त ऐसी टिप्पणी करते हैं कि दिल पर लगे और बाद में पूछते हैं बुरा तो नहीं लगा न?? अन्यथा न लीजिएगा। अब सोच रहे होगे कि मै भी दिल पर ले लिया था तो ऐसा कुछ भी नहीं है भैया! न तो अन्यथा लिया और ना ही दिल पर कोई आपकी बात लगी। आपकी सारी बातें दिल में गयी हमेशा कोशिश रही आपको ऐसी रचना दूँ जिस पर आप नकारात्मक टिप्पणी ना कर सके। Umashankar Dwivedi (उमा भैया)Kb Singh(केशर भैया) Satvinder Kumar(सत्तू भैया) का सहयोग और साथ कदम दर कदम है। कुमार सौष्ठव भाई Atul Awasthi भाई Diwakar Dutta Tripathi भैया यानी डाग्डर साहेब Yash भाई आप लोगों की उत्साहवर्धन टिप्पणी कमाल की। बहन Jyoti Tripathi जी आपकी क्या बात करूँ आप तो लगता है मेरे मुक्तकों की ज्योति है। आपकी टिप्पणी के बाद से मुक्तक लिखना कम कर दिया। जब भी मुक्तक लिखने बैठता तो आपकी टिप्पणी याद आ जाती है, दिमाग में एक बात चलने लगती है कि मजाक में मुक्तक नहीं लिखना, कुछ बेहतर मुक्तक लिखना है। Kishan Lal Upadhyayभैया Chhote Lalभैया स्नेहाँशु भैया जनार्दन पाण्डेय(जेपी) सर Manishभैया पिंगलाचार्य निर्दोष भैया राजकुमार भैया प्रवेश भैया रंगनाथ भैया सौजन्य भैया Shivesh भैया Subodhभैया Upendra भैया आप लोगों के स्नेह का बहुत बहुत आभारी हूँ।

अब दूसरी तरफ चलता हूँ। पहले तो DrNikhil Dev Chauhan (निखिल) भैया आपको नमन...। नमन इसलिए क्युकि मुझे नहीं पता कि कोई मेरी रचनायें आप जितना मन से सुनता होगा। मुझे तो फेसबुक अपनी रचनाओं और अपनी फोटोज का डेटाबेस लगता है इसलिए मैं कभी किसी को लाईक कमेंट करने को कहता नहीं हूँ पर आपके दिल से मिले लाईक को नमन करता है। Er Anand Sagar Pandey(अनन्य) भैया आपको क्या कहूँ आप तो दिल में इस तरह बैठे हो कि सारी रचनायें आपसे होने के बाद ही कहीं जा पाती हैं। सुनील भाई और श्री Harendra गुरू जी आप द्वय का हार्दिक आभार। आप द्वय से प्रेरणा मिलती रहती आगे लिखने की, कुछ बेहतर करने की। Purusharth भैया! साहित्य की जानकारी जितनी आपको है उतनी मुझे नहीं है, आपके साहित्य को और आपको एक स्वर में नमन। आप तो हमारी हिम्मत और ताकत सी बन गये हैं। इसका किस तरह से आभार व्यक्त करूँ मेरी समझ से परे है। बाकी साहित्यिक मित्रों में प्रभात Prabhat भाई Mehul भाई Vikram भाई Uzma IshikaVaishnavi कोमलजी Nitika Anuragभाई Shashwatभाई Pavitraभाई Shahbaz Anwarभाई Balmohanभाई Shashankभाई Abbas Qamarभाई कौशलेन्द्रभाई Krishna भाई Mani Dixit कुलभाष्कर भाई Neha Pathak Deepa Yadav Vinod भैया Achyudanand(ऐसी) भैया आप सभी लोगों साथ बने रहने के लिए हार्दिक आभार। आप लोगों से मिले स्नेह और आशीर्वाद का आभारी हूँ।


जय हो।AATM-CHINTAN

रेत पर हम चले तो बदन जल गया

रेत पर हम चले तो बदन जल गया,
धूप बिखरी थी मन में औ मन जल गया,
रेत पर हम चले तो बदन जल गया।

आँख उलझन रही पीड़ा मन में रही,
आँच हल्की हमारे जिगर में रही।
हल्की हल्की ही आँचों से मन जल गया,
मन के अन्दर का सारा भरम जल गया,
जिसको जलना था सारा वहम जल गया,
रेत पर हम चले तो बदन जल गया,
धूप बिखरी थी मन में औ मन जल गया।

झूठ लगते थे रिश्ते सब चुप्पी लिये,
सुख की खेती में थे दुख की झप्पी लिये,
मन के अन्दर जगाये थे पीड़ा के भाव,
सोचा लेकर चलूँ पीड़ा हिम्मत के नाव,
देख हिम्मत का दामन ये मन जल गया,
रेत पर हम चले तो बदन जल गया,
धूप बिखरी थी मन में औ मन जल गया।

बात बनती रही औ बिगड़ती रही,
बात शब्दों में ही ढल के चलती रही,
मानो पानी के कतरे में सागर सलोना,
मिला बच्चों को जैसे हो अपना खिलौना,
बात बच्चों की थी जल खिलौना गया,
रेत पर हम चले तो बदन जल गया,
धूप बिखरी थी मन में औ मन जल गया।

हड़बड़ाए बहुत थे बहुत बड़बड़ाए,
मगर भाव दिल के हम लिख भी न पाए,
मालूम नहीं हमको खुद की ऊँचाई,
कहो कैसे लिख दे मन की तराई,
करूणा लिए मन सुमन जल गया,
रेत पर हम चले तो बदन जल गया,
धूप बिखरी थी मन में औ मन जल गया।
                             ©अतुल कुमार यादव

मुक्तक-2

हाथों में हैं छाले पड़ गये,
खाने को हैं लाले पड़ गये।
निर्धनता लाचारी महँगा'ई,
मजदूरों के पाले पड़ गये।।

हड्डी से पसली तक तोड़ा,
दुश्मन का है गला मरोड़ा।
अब तो भारत के शेरों ने,
नौशेरा में बम है फोड़ा।।

तुम कहो तो सुबह को शाम लिख दूँ,
गुजरता पल तुम्हारे नाम लिख दूँ।
बात होती रहेगी जिन्दगी की,
गर 'जिन्दगी' तुम्हारा धाम लिख दूँ।।

कहानी है हमारी पर कहानी में कहानी है,
घिसेंगे हाथ पत्थर पर कलाई ने ये ठानी है।
कभी रस्ता बनाना खुद कभी चलना अकेले में,
यही मजदूर होने की मेरी सच्ची निशानी है।।

गढ़ते रहे वो कौन सी भाषा जाकर के बाजार में,
हैं चापलुसी से कुर्सी पाये नई नई सरकार में।
खर्चे कैसे कम रखते हैं आज हमें बतलाते है,
जो ए.सी. वाले घर में रहते और घुमते कार में।।

कभी हाथों में शोला है कभी आँखों में पानी है,
समन्दर पार करना है कभी ना हार मानी है।
बड़ी मुश्किल डगर है ये मगर मजदूर है हम भी,
गलाने को अभी पत्थर हमारे दिल ने ठानी है।।

जिसे मैं गुनगुना जाऊँ मिलो वह छन्द होकर तुम,
मिलो रिश्तों की डोरी की कभी गुलकन्द होकर तुम,
तुम्हारी याद के बादल हमारे घर बरसते हैं,
उन्ही बरसात में मिलना जरा मन्द होकर तुम।।

जिसे मैं गुनगुना पाऊँ मिलो वो छन्द होकर तुम,
बिखेरो फूल की खुश्बू मिलो मकरन्द होकर तुम।
नहीं मैं चाहता तुमसे रहो तन्हा हमें खोकर,
बधों रिश्तों की डोरी में मिलो गुलकन्द होकर तुम।।

हवा के साथ चलने का हुनर जिसको पता होगा,
उसी की राह में मंजिल का सिर खुद ही झुका होगा।
न पूछो हद हवाओं से परिन्दों की उड़ानों का,
भला क्या पूछने को अब वही बचपन बचा होगा।

समन्दर पार करना खुद किनारे साथ नहीं देगें,
मुकद्दर से जो बहके तो सहारे साथ नहीं देंगे।
जमाने से नहीं रखना कभी उम्मीद कोई तुम,
सफर इतना ये मुश्किल है नजारे साथ नहीं देंगे।।

ये दरिया है कहाँ रहता समन्दर को पता होगा,
खुदा गर है बसा दिल में तो पत्थर को पता होगा।
समय की साँस में हम तुम चलो अब रंग को घोले,
घुला जो रंग महफिल में तो हर घर को पता होगा।।

खफा होती कभी जो तुम धड़कने रुक सी जाती है,
कदम दो चार चलकर के ये साँसें थम सी जाती है।
यहीं तक था यहीं तक हूँ यहीं तक जिन्दगानी है,
तुम्हारे साथ होने से ये' हिम्मत बढ़ सी जाती है।।

तुम्हारे दिल की मायूसी हमारे दिल पे भारी है,
कई रातें यहाँ हमने तो' अश्कों में गुजारी है।
तुम्हारी प्रीत जिन्दा है मुझे तो याद बस इतना
हमारे मन के मंदिर में बसी मूरत तुम्हारी है।।

तुम्हें पाने की चाहत में तुम्हें ही खो रहा हूँ मैं,
तुम्हारे चाहतों के बीज दिल में बो रहा हूँ मैं।
लिखा जो गीत रो रोक सुनाता अब वही हँसकर,
खुशी मिलने की' है या फिर अभी भी रो रहा हूँ मैं।।

घर का झगड़ा उठकर बाजार तक आ गया,
झूठ का वो माजरा अखबार तक आ गया।
मोम जैसा दिल लेकर फिरता रहा जमाना,
था दिल का मामला औ सरकार तक आ गया।।


कभी दीपक कभी सूरज कभी आलोक हो जाऊँ,
ग़ज़ल गीतों की दुनिया का मैं तीनों लोक हो जाऊँ।
जमाना हो गया खुद से मुझे लड़ते-झगड़ते ही,
सुलह करके मुकद्दर से मैं कोई श्लोक हो जाऊँ।।
                                                ©अतुल कुमार यादव

ग़ज़ल : रात होती रही चाँद सोता रहा

रात होती रही चाँद सोता रहा,
ख्वाब की एक दुनिया सँजोता रहा।

हासिये पर चला औ छला हर घड़ी,
चाँद खुद ही दगाबाज होता रहा।

हौसलों की जो' बारिश हुयी रात थी,
मन निराशा लिये चाँद खोता रहा।

रागिनी में मधुर तान छेड़ों न अब,
रूप श्रृंगार का जुल्म ढोता रहा।

चाँदनी रात में बात ही बात में,
प्यार का फैसला रात होता रहा।

प्यार था ही नहीं ख्वाब ही ख्वाब था,
जिन्दगी की हकीकत पिरोता रहा।

साजिशों से फँसा रात की घात में,
हाल बेहाल किस्मत का' होता रहा।
                         ©अतुल कुमार यादव

उम्मीदों का सूरज था मैं

उम्मीदों का सूरज था मैं,
दीपक बनकर जूझ रहा हूँ।
मैं पतवार लिये हाथों में,
तटबन्धों को ढूढ़ रहा हूँ।

उलझी सुलझी तकदीरों में,
दौलत की इन जंजीरों में।
चाहत का दरिया फैला है,
सबका आँचल कुछ मैला है।
मैले आँचल की बात रहेगी,
मगर प्रीत की नाव बहेगी,
उसी नाव पर चढ़ कर अब तो,
अपनेपन से जूझ रहा हूँ।
मैं पतवार लिये हाथों में,
तटबन्धों को ढूढ़ रहा हूँ।

मौसम तो आते जाते हैं,
हर पल लोग बदल जाते हैं,
जो बदले ना मौसम जैसे,
उनको सदा सरल पाते हैं।
जिनको सदा सरल पाते हैं,
मन की बातें कह जाते हैं।
मन की बातें कहते कहते,
मन ही मन से जूझ रहा हूँ।
मैं पतवार लिये हाथों में,
तटबन्धों को ढूढ़ रहा हूँ।

तन के जख्मों को अब सीकर,
मन के कोलाहल को पीकर,
कर्मयोग को गढ़ते गढ़ते,
लीलाओं को पढ़ते पढ़ते,
अनजानी यादें घिर आती,
बचपन में हमको ले जाती,
गुल्ली डंडे कंचों में अब,
अपना बचपन ढूढ़ रहा हूँ।
मैं पतवार लिये हाथों में,
तटबन्धों को ढूढ़ रहा हूँ।

चमकेगी अब मेहनत मेरी,
है लिपटी खून पसीने में।
कहो उजाला फिर क्या भरना,
क्या तम है अब भी जीने में।
तम की बातें करते करते,
रातें बीती सोते जगते।
काली काली उन रातों में,
मैं ही तो इक मूढ़ रहा हूँ।
मैं पतवार लिये हाथों में,
तटबन्धों को ढूढ़ रहा हूँ।

उम्मीदों का सूरज था मैं,
दीपक बनकर जूझ रहा हूँ।
दीपक बनकर जूझ रहा हूँ,
खुद ही खुद को ढूँढ रहा हूँ।।
          ©अतुल कुमार यादव

आज लिखते लिखते इक ग़ज़ल

आज लिखते लिखते इक ग़ज़ल
क्यूँ नयन मेरे अब हो गये सजल।

आँसू पीड़ा दिल में तो था ही नहीं,
फिर क्यूँ? क्यूँ देख सभी गये दहल।

मेरे दिल की बस्ती तो विरान है अभी
तो बेहिजाब रहने लगा कौन इस-पल

यकीनन नींव जिसने रखीं थी ख्वाबों में,
अब वही कहे कैसी है आगे की पहल।

घर बनाने की बात तो सिर्फ बातों में थी,
दुआओं से देखो बना है ये कैसा महल।

जब हर लम्हा तेरे नाम किया 'अतुल'
तब जाकर मुकम्मल है शहर-ए-ग़ज़ल।
                               ©अतुल कुमार यादव

आँसू घुटन दर्द ख्वाब सब याद हैं

आँसू घुटन दर्द ख्वाब सब याद हैं,
दौलत दुआ दृष्टि दया आबाद हैं।

शिद्दत शोर शान शहर की बात तो,
सपनों की सदाओं में बर्बाद हैं।

चाँद चेहरा चाहत वक्त के संग,
पर इशारे जुगनूओं के बाद हैं।

हाल-चाल हवाला हालात के, पर,
समन्दर सफीना समय आजाद हैं।

पर परिन्दे पिंजरे पैबन्द अब तक,
मजहब मतलब मतलब के औलाद हैं।

इश्क़ ईनाम ईनायत सब अफसाना
अफसोस अतुल जख्म-ए-दिल याद हैं।।
                               ©अतुल कुमार यादव.

जिन्दगी में खैरियत का

जिन्दगी में खैरियत का सिलसिला कुछ भी नहीं,
हम उसूलों पर चलें हैं सिरफिरा कुछ भी नहीं।

वक्त की पाबन्दियों में चल रहा मैं रात दिन,
दरबदर हूँ मैं भटकता माजरा कुछ भी नहीं।

हर घड़ी है याद रखनी बस बड़ों की बात को,
ज्ञान की इन वादियों का दायरा कुछ भी नहीं।

हर तरफ अंधेर है यह रौशनी को क्या पता?
इक जलाना दीप मुझको मशवरा कुछ भी नहीं।

हसरतों को तुम लिए दिल में उतरकर देख लो,
इन निगाहों का तेरे बिन आसरा कुछ भी नहीं।
                                   ©अतुल कुमार यादव.

खुदा ने सौंप दी मुझको

खुदा ने सौंप दी मुझको कई दुनिया हिसाबों में,
सुकूँ मिलता नहीं बस आज दौलत की किताबों में।

फँसे हम ही रहे अब तक गली में आप की देखो,
खुदा ने रख दिया नक्शा जमीं का माहताबों में।

तलाशी हैं सभी लेते मगर हासिल नहीं कुछ भी,
मिले हैं सब सबब मुझको सियासत के नकाबों में।

हजारों ख्वाहिशें मेरी दफन हैं आज सीने में,
नजर के ही नजारे हैं हया के इन हिजाबों में।

कली अब तोड़ मत लेना समझकर फूल जज्बाती,
बिखरती है सिमटती है बनी काँटा गुलाबों में।।
                                       ✍©अतुल कुमार यादव

अश्क का छोटा कतरा

मैं अश्क का
एक छोटा सा
वो कतरा हूँ,
जिसे तुम
जब चाहो तब
बहा सकते हो,
जब चाहो तब
अपने लफ्जों में
अपने अल्फाजों में
अपनी भावनाओं में
मोतियों की तरह
पिरो सकते हो।
वैसे भी स्याह दर्द
की राहें
इतनी भी
आसान नहीं होती
कि तुम बस चलते जाओ
और तुम्हें तनिक भी
तकलीफ न हो।
तुम जब भी
मेरे बनाये रास्तों
चलोगे...
तो यादों का गीलापन
तुम्हें रोकेगा, टोकेगा
और अन्तत:
खुद में समेट लेगा।
तुम मुझे नजरों की राह
से गिरा तो रहे हो
पर क्या तुम
मुझे इन राहों पर चलकर
भूला पाओगे?
अगर भुला सकते हो
तो भूला देना,
और अपनी यादों की,
वादों की,
इरादों की दुनियाँ में
एक चिराग की तरह
रौशन होकर
अपने जिन्दगी की राहें
खुशियों से सजा लेना।
©अतुल कुमार यादव.

थक हार कर दिल का पन्ना

थक हार कर दिल का पन्ना,
अब धीरे से सो जाता है,
अपनों की बातें नहीं हैं करता,
बस तुझमें खो जाता है,
मेरे दिल की ज्योति राशि हो,
दिल में तुम्हें जलाऊँगा,
कभी कभी मैं तुमसे मिलने,
दिल के भीतर तक आऊँगा।

रेजा रेजा दिन निकलेगा,
रेजा रेजा रातें होगी।
तुम दिल की दिल्ली में रहना,
धीरे धीरे बातें होगी।
प्रेम की डोरी में बँधकर मैं,
अपना धरम निभाऊँगा,
कभी कभी मैं तुमसे मिलने,
दिल के भीतर तक आऊँगा।
रिश्ते नाते आज जगत में,
पल भर में मिट जाते हैं,
सुनो सुनो तुम मेरी बातें,
हम जन्मों साथ निभातें है,
आज लिये चलता हूँ संग में,
दिल में तुम्हें बसाऊँगा,
कभी कभी मैं तुमसे मिलने,
दिल के भीतर तक आऊँगा।

आज मिलन की पावन बेला है,
मंगल भाव जगाता हूँ,
जियो हजारों साल जगत में,
गीत खुशी के गाता हूँ,
गीतें गाते खुशियों की मैं,
पास सभी के जाऊँगा।
कभी कभी मैं तुमसे मिलने
दिल के भीतर तक आऊँगा।

कभी कभी मैं तुमसे मिलने
दिल के भीतर तक जाऊँगा,
जब जब यादें लहरें लेंगी,
पोर पोर खुल जाऊँगा,
गीतें गातें गातें तुमसे,
चितवन में मिल जाऊँगा,
कभी कभी मैं तुमसे मिलने
दिल के भीतर तक आऊँगा।।
               ©अतुल कुमार यादव.

सुनाओ आज दिल की तुम

सुनाओ आज दिल की तुम तुम्हारा हाल कैसा है?
तुम्हारे लोग कैसे हैं कहो ये साल कैसा है?

नहीं जीना हमें मरना कभी अब इश्क में फँसकर,
नहीं मैं जानता कुछ भी बता दो ख्याल कैसा है?

घरौंदा हो भले छोटा निवाला तुम ग्रहण करना,
मगर मत पूछ लेना ये कि चावल दाल कैसा है?

हमें बस ख्वाब मिलता है अभी दिन के उजालों में,
निगाहों में हकीकत का भरा जंजाल कैसा है?

अदालत की बिकी झूठी गवाही दिल कुरेदीं हैं,
शहर की तब हवाओं में मचा भूचाल कैसा है?

बहर मालूम होती तो मुकम्मल हर नजर होती,
ग़ज़ल की भाष में सुन लो अभी ये लाल कैसा है?
                                         ✍© अतुल कुमार यादव

राजगुरू सुखदेव भगत

राजगुरू सुखदेव भगत को हरदम शीश नवाता हूँ।
भारत के कदमों में झुक कर मैं श्रद्धा सुमन चढ़ाता हूँ।

आजाद लहू है आज देश का जिनके दम से,
उनको जिन्दा आज देश के रज कण में पाता हूँ।

जिनकी शहादत है जिन्दा अब तक देशी माटी में
वैसा ही मै वीर सपूत इस मिट्टी में उपजाता हूँ।

कलम ऋणी है देश ऋणी है अब तक जिनकी गाथाओं का,
नतमस्तक सम्मुख मैं उनके अक्सर खुद हो जाता हूँ।

इन्क़लाब ज़िन्दाबाद अब गूँज उठे भारत वन में,
मेरा अन्तर्मन तो वन्दे मातरम् गाता औ दोहराता हूँ।
                                            ✍©अतुल कुमार यादव

पेट की पीड़ा

आज के जिन्दगी की
विवशता ही कुछ ऐसी है
कि आँखों के ख्वाब
न मुकम्मल होते हैं
और ना ही कभी खत्म।
बदलते लोग
और
लोगों की बदलती फितरत
न तो थमेंगी
और ना ही रूकेगी।
बस... आज की ये
लाचारियाँ
कुछ ऐसी हैं
कि एक कन्धें पर
शिक्षा का अधिकार
तो दूसरे पर
पेट की पीड़ा
टँगी
नजर आती है।
आज उन आँखों में भी
दिन रात पढ़ने की
पीड़ा पलती है, जिनमें
लाचारी, आर्थिक तंगी
और विवशता ने
अपना घर बना लिया है
और उनके
सारे सपनों को
आज
खंडित कर दिया है।
अब सामने जब भी
कोई बच्चा
शिक्षा के अधिकारों को
कंधें पर लटकाये
मुँह चिढ़ाता है
तब, आरजू के पन्नें
बिखरने लगते हैं
सपन सलोने
टूटने लगते है,
गमजदी के पर भी
निकलने लगते हैं
और अन्तत:
आँखों के सपनें
थक हार कर
बेकरारी की पीड़ा के मध्य
बेजुबान हो कर
हमेशा हमेशा
हमेशा के लिए
मजबुरी और गरीबी की
इन पसरी
चहरदिवारियों में
दफन हो जाते हैं।
✍©अतुल कुमार यादव

लघु-कथा

आज बस के कोने में आखिरी सीट पर बैठा लोगों को चढ़ता उतरता देख रहा था। कुछ लोग बस में चढ़े टिकट लिये और सफर समाप्त होते ही उतर लिये। वही कुछ लोग चढ़े तो लोगों को खुद से जोड़ने लगे,राजनीति से लेकर देश काल की हजारों बातों का ज्ञान बाटने लगे। शेष बचे कुछ लोग बस में चढ़े तो टिकट लिये दो कदम इधर उधर हुए और दस मिनट के सफर में ही लोगों से लड़ने झगड़ने लगे। ऐसा देख कुछ लोग बीच बचाव में लग गये तो कुछ उकसावे में और कुछ लोग सब कुछ देखते सहते उदासीन बने रहे, जो स्वाभाविक भी है। शायद यही "बस" दुनिया है और सवारियाँ हम आप जैसे करोड़ों लोगों की जिन्दगी और लड़ना झगड़ना चार दिन की जिन्दगी के सुख दुख। अब निर्भर हम पर करता है कि हमें सुख दुख में विचलित होना है या एक सा बने रहना है।
                                                                                                                                                   ©अतुल कुमार यादव.

जिन्दगी में खैरियत का

जिन्दगी में खैरियत का सिलसिला कुछ भी नहीं,
हम उसूलों पर चलें हैं सिरफिरा कुछ भी नहीं।

वक्त की पाबन्दियों में चल रहा मैं रात दिन,
दरबदर हूँ मैं भटकता माजरा कुछ भी नहीं।

हर घड़ी है याद रखनी बस बड़ों की बात को,
ज्ञान की इन वादियों का दायरा कुछ भी नहीं।

हर तरफ अंधेर है यह रौशनी को क्या पता?
इक जलाना दीप मुझको मशवरा कुछ भी नहीं।

हसरतों को तुम लिए दिल में उतरकर देख लो,
इन निगाहों का तेरे बिन आसरा कुछ भी नहीं।
                                     ©अतुल कुमार यादव.

ग़ज़ल : भोजपूरी

जिनिगिया के रस्ता बतावे के मन बा,
जिनिगिया के रस्ता दिखावे के मन बा।

केहूँ न संघें  ना केहूँ के संग बा,
जिनिगिया के संघी बनावे के मन बा।

सुख दुःख के पंक्षी उड़े लागल मन में,
जिनिगिया के पंक्षी उड़ावे के मन बा।

मिले लोर कबहूँ जो आँखी में अपना,
जिनिगिया के हर गम छुपावे के मन बा।

केहुये न आपन ना केहुये पराया,
जिनिगिया के दुश्मन बनावे के मन बा।

कबो गीत सोहर गावे ला मनवा... हो,
जिनिगिया के सरगम बजावे के मन बा।

दिलवा में नेहिया भरल भोजपूरी.. त,
जिनिगिया के "आखर" बनावे के मन बा॥
                             © अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

ग़ज़ल : कब तक आँखें

कब तक आँखें चार करोगी?
बोलो कब तक प्यार करोगी?

उल्टे सीधे लहजों से तुम,
कब तक आँखें खार करोगी?

प्यार नहीं है दिल से तुमको,
गलती तो हर बार करोगी?

नफरत लेकर अपने मन में,
हमसे कितना प्यार करोगी?

दिल से दिल ये पूछ रहा है,
कब तक ऐसे रार करोगी?

माना जीवन यह दरिया है,
डर के कब तक पार करोगी?

सच सच तुम इतना बतला दो,
मुझको कब स्वीकार करोगी?
                   ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

गीत

जीवन की अन्तिम बेला में,
सोचा था बस गीत लिखूँगा।
बैठे-बैठे साथ सभी के,
सोचा था बस प्रीत लिखूँगा।

नहीं लिखा है गीत अभी तक,
नहीं लिखा है प्रीत अभी तक।
नहीं लिखूँगा मानव का मन,
नहीं लिखूँगा दानव का तन।
अभी निराशा के इस क्षण में,
नहीं कलम के भाव लिखूँगा।
नहीं लिखूँगा नहीं दिखूँगा,
नहीं दिखूँगा नहीं लिखूँगा।
काव्य जगत में जब आऊँगा,
नये सपन को तब लाऊँगा।
नई नई फिर रीत लिखूँगा,
नई नई फिर प्रीत लिखूँगा।
जीवन की अन्तिम बेला में,
सोचा था बस जीत लिखूँगा॥

नई दिशायें साथ न होगी,
भले किसी बात न होगी।
मालूम है मुझको बस इतना,
पहले जैसी रात न होगी।
पहले जैसे रात न होगी,
पहले जैसे बात न होगी।
सहज सरल मुझको रहना है,
नहीं किसी से कुछ कहना है।
पर लगता अंतिम बेला में,
नहीं लिखूँगा नहीं दिखूँगा।
नहीं लिखा तो नहीं लिखूँगा,
नहीं दिखा तो नहीं दिखूँगा।
जीवन के अन्तिम बेला में,
नहीं दिखूँगा नहीं लिखूँगा॥
                    ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

प्रेम-निवेदन

तुम जानती हो?
तुम मुझे
बहुत अच्छी लगती हो।
मालूम है मुझे,
तुम सुन्दर हो
गोरी हो
आकर्षक हो
और साथ ही साथ हँसमुख भी।
पर तुम्हारी सुन्दरता
तुम्हारे चेहरे से बयाँ नहीं होती।
तुम्हारी ये झील सी
बड़ी बड़ी आँखें,
सुन्दर तो है पर 
जब शर्म से झुकती हैं तो
और भी सुन्दर हो जाती है।
झुकते वक्त तो 
मानो लगता है
ये आसमाँ ही झुक रहा।
कभी कभी सोचता हूँ,
कहाँ से पायी है आँखें??
तुम्हारी मुस्कुराहट
जो तुम्हारे होठों में छिपकर
शालीनता से मुस्कान भरती है।
तब तो मानो दिल में
छेद कर जाती है। 
गुम कर देती है हमें,
इन फिजाओं के वादियों में।
कुछ सोचने पर 
मजबूर कर देती है,
और तुम्हारी आवाज
जब हँस हँस के बोलती हो,
या यूँ कहूँ कि बोल बोल के हँसती हो,
तो लगता है कि
नदी की धारा रुक रुक क्र
मन को भीगोती
चल रही है।
कल तक सोचता था
तुम कहाँ?? और ये जमाना कहाँ??
पर आज सोचता हूँ
ये जमाना कहाँ? और तुम कहाँ?
शायद
तुम हो आधुनिक....।
तुमने आधुनिकता को 
अपने में सहेज रखा है।
आज मेरी कविता का 
एक एक अक्षर, 
एक एक शब्द
तुम्हें टुकुर टुकुर देखता है,
निहारता है।
जैसे कोई बच्चा
दुध पीते हुये 
अपने माँ ?
का चेहरा देखता है।
जानती हो?
तुम्हारा कविता हो जाना
या कविता का तुम हो जाना
एक ही पल में खत्म कर देता है,
मेरे मन का काश!
कि तुम कविता होती
जानती हो क्यू?
नहीं न?
क्युकि बह जाता है
कवि का अहसास
कवि का भाव 
रात का चाँद और
और एक जमाने का प्रेमी।
जानती हो कहाँ?
नहीं न?
अरे!
तुम्हारे इन आँखों के 
नेह सागर में।
पर हाँ सुनो!
एक प्रेम दफन है
आज मेरे सीने में,
जो सदियों पहले
दफना दिया था किसी ने,
तुम चाहो तो वो प्रेम 
जगा सकती हो,
जिस पर हक होगा
सिर्फ़ और सिर्फ़ तुम्हारा।
सोचता हूँ कभी कभी
कह दूँ तुमसे प्रेम के वो तीन अल्फ़ाज,
पर नहीं, आज नहीं कह सकता।
हाँ आज नहीं, पर जब तुम मुझेे
स्वीकार करोगी,
तब चुम लूँगा तुम्हारे अधरों को,
लगा लूँगा सीने से,
और फिर तुम खुद ही सुन लेना,
मेरे दिल के वो तीन अल्फ़ाज
जिसकी जरूरत है, तुम्हें भी और मुझे भी,
जिसकी चाहत हैे, तुझे भी और मुझे भी
बोलो! तब फिर लग के दिल से, सुनोगी?
मेरे दिल के वो तीन अल्फ़ाज?
छोड़ता हूँ तुम पर, 
मैं बस इन्तज़ार करूँगा,
तुम्हारा और तुम्हारे जवाब का।
                         ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"