उम्मीदों का सूरज था मैं

उम्मीदों का सूरज था मैं,
दीपक बनकर जूझ रहा हूँ।
मैं पतवार लिये हाथों में,
तटबन्धों को ढूढ़ रहा हूँ।

उलझी सुलझी तकदीरों में,
दौलत की इन जंजीरों में।
चाहत का दरिया फैला है,
सबका आँचल कुछ मैला है।
मैले आँचल की बात रहेगी,
मगर प्रीत की नाव बहेगी,
उसी नाव पर चढ़ कर अब तो,
अपनेपन से जूझ रहा हूँ।
मैं पतवार लिये हाथों में,
तटबन्धों को ढूढ़ रहा हूँ।

मौसम तो आते जाते हैं,
हर पल लोग बदल जाते हैं,
जो बदले ना मौसम जैसे,
उनको सदा सरल पाते हैं।
जिनको सदा सरल पाते हैं,
मन की बातें कह जाते हैं।
मन की बातें कहते कहते,
मन ही मन से जूझ रहा हूँ।
मैं पतवार लिये हाथों में,
तटबन्धों को ढूढ़ रहा हूँ।

तन के जख्मों को अब सीकर,
मन के कोलाहल को पीकर,
कर्मयोग को गढ़ते गढ़ते,
लीलाओं को पढ़ते पढ़ते,
अनजानी यादें घिर आती,
बचपन में हमको ले जाती,
गुल्ली डंडे कंचों में अब,
अपना बचपन ढूढ़ रहा हूँ।
मैं पतवार लिये हाथों में,
तटबन्धों को ढूढ़ रहा हूँ।

चमकेगी अब मेहनत मेरी,
है लिपटी खून पसीने में।
कहो उजाला फिर क्या भरना,
क्या तम है अब भी जीने में।
तम की बातें करते करते,
रातें बीती सोते जगते।
काली काली उन रातों में,
मैं ही तो इक मूढ़ रहा हूँ।
मैं पतवार लिये हाथों में,
तटबन्धों को ढूढ़ रहा हूँ।

उम्मीदों का सूरज था मैं,
दीपक बनकर जूझ रहा हूँ।
दीपक बनकर जूझ रहा हूँ,
खुद ही खुद को ढूँढ रहा हूँ।।
          ©अतुल कुमार यादव

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