रेत पर हम चले तो बदन जल गया

रेत पर हम चले तो बदन जल गया,
धूप बिखरी थी मन में औ मन जल गया,
रेत पर हम चले तो बदन जल गया।

आँख उलझन रही पीड़ा मन में रही,
आँच हल्की हमारे जिगर में रही।
हल्की हल्की ही आँचों से मन जल गया,
मन के अन्दर का सारा भरम जल गया,
जिसको जलना था सारा वहम जल गया,
रेत पर हम चले तो बदन जल गया,
धूप बिखरी थी मन में औ मन जल गया।

झूठ लगते थे रिश्ते सब चुप्पी लिये,
सुख की खेती में थे दुख की झप्पी लिये,
मन के अन्दर जगाये थे पीड़ा के भाव,
सोचा लेकर चलूँ पीड़ा हिम्मत के नाव,
देख हिम्मत का दामन ये मन जल गया,
रेत पर हम चले तो बदन जल गया,
धूप बिखरी थी मन में औ मन जल गया।

बात बनती रही औ बिगड़ती रही,
बात शब्दों में ही ढल के चलती रही,
मानो पानी के कतरे में सागर सलोना,
मिला बच्चों को जैसे हो अपना खिलौना,
बात बच्चों की थी जल खिलौना गया,
रेत पर हम चले तो बदन जल गया,
धूप बिखरी थी मन में औ मन जल गया।

हड़बड़ाए बहुत थे बहुत बड़बड़ाए,
मगर भाव दिल के हम लिख भी न पाए,
मालूम नहीं हमको खुद की ऊँचाई,
कहो कैसे लिख दे मन की तराई,
करूणा लिए मन सुमन जल गया,
रेत पर हम चले तो बदन जल गया,
धूप बिखरी थी मन में औ मन जल गया।
                             ©अतुल कुमार यादव

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