मुक्तक-2

हाथों में हैं छाले पड़ गये,
खाने को हैं लाले पड़ गये।
निर्धनता लाचारी महँगा'ई,
मजदूरों के पाले पड़ गये।।

हड्डी से पसली तक तोड़ा,
दुश्मन का है गला मरोड़ा।
अब तो भारत के शेरों ने,
नौशेरा में बम है फोड़ा।।

तुम कहो तो सुबह को शाम लिख दूँ,
गुजरता पल तुम्हारे नाम लिख दूँ।
बात होती रहेगी जिन्दगी की,
गर 'जिन्दगी' तुम्हारा धाम लिख दूँ।।

कहानी है हमारी पर कहानी में कहानी है,
घिसेंगे हाथ पत्थर पर कलाई ने ये ठानी है।
कभी रस्ता बनाना खुद कभी चलना अकेले में,
यही मजदूर होने की मेरी सच्ची निशानी है।।

गढ़ते रहे वो कौन सी भाषा जाकर के बाजार में,
हैं चापलुसी से कुर्सी पाये नई नई सरकार में।
खर्चे कैसे कम रखते हैं आज हमें बतलाते है,
जो ए.सी. वाले घर में रहते और घुमते कार में।।

कभी हाथों में शोला है कभी आँखों में पानी है,
समन्दर पार करना है कभी ना हार मानी है।
बड़ी मुश्किल डगर है ये मगर मजदूर है हम भी,
गलाने को अभी पत्थर हमारे दिल ने ठानी है।।

जिसे मैं गुनगुना जाऊँ मिलो वह छन्द होकर तुम,
मिलो रिश्तों की डोरी की कभी गुलकन्द होकर तुम,
तुम्हारी याद के बादल हमारे घर बरसते हैं,
उन्ही बरसात में मिलना जरा मन्द होकर तुम।।

जिसे मैं गुनगुना पाऊँ मिलो वो छन्द होकर तुम,
बिखेरो फूल की खुश्बू मिलो मकरन्द होकर तुम।
नहीं मैं चाहता तुमसे रहो तन्हा हमें खोकर,
बधों रिश्तों की डोरी में मिलो गुलकन्द होकर तुम।।

हवा के साथ चलने का हुनर जिसको पता होगा,
उसी की राह में मंजिल का सिर खुद ही झुका होगा।
न पूछो हद हवाओं से परिन्दों की उड़ानों का,
भला क्या पूछने को अब वही बचपन बचा होगा।

समन्दर पार करना खुद किनारे साथ नहीं देगें,
मुकद्दर से जो बहके तो सहारे साथ नहीं देंगे।
जमाने से नहीं रखना कभी उम्मीद कोई तुम,
सफर इतना ये मुश्किल है नजारे साथ नहीं देंगे।।

ये दरिया है कहाँ रहता समन्दर को पता होगा,
खुदा गर है बसा दिल में तो पत्थर को पता होगा।
समय की साँस में हम तुम चलो अब रंग को घोले,
घुला जो रंग महफिल में तो हर घर को पता होगा।।

खफा होती कभी जो तुम धड़कने रुक सी जाती है,
कदम दो चार चलकर के ये साँसें थम सी जाती है।
यहीं तक था यहीं तक हूँ यहीं तक जिन्दगानी है,
तुम्हारे साथ होने से ये' हिम्मत बढ़ सी जाती है।।

तुम्हारे दिल की मायूसी हमारे दिल पे भारी है,
कई रातें यहाँ हमने तो' अश्कों में गुजारी है।
तुम्हारी प्रीत जिन्दा है मुझे तो याद बस इतना
हमारे मन के मंदिर में बसी मूरत तुम्हारी है।।

तुम्हें पाने की चाहत में तुम्हें ही खो रहा हूँ मैं,
तुम्हारे चाहतों के बीज दिल में बो रहा हूँ मैं।
लिखा जो गीत रो रोक सुनाता अब वही हँसकर,
खुशी मिलने की' है या फिर अभी भी रो रहा हूँ मैं।।

घर का झगड़ा उठकर बाजार तक आ गया,
झूठ का वो माजरा अखबार तक आ गया।
मोम जैसा दिल लेकर फिरता रहा जमाना,
था दिल का मामला औ सरकार तक आ गया।।


कभी दीपक कभी सूरज कभी आलोक हो जाऊँ,
ग़ज़ल गीतों की दुनिया का मैं तीनों लोक हो जाऊँ।
जमाना हो गया खुद से मुझे लड़ते-झगड़ते ही,
सुलह करके मुकद्दर से मैं कोई श्लोक हो जाऊँ।।
                                                ©अतुल कुमार यादव

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