सौ लोगों के आदर्शों से नहीं चलते विश्वविद्यालय

सौ लोगों के आदर्शों से नहीं चलते विश्वविद्यालय
                 किसी भी विश्वविद्यालय में छात्र दाखिला लेता है तो यह सोचकर लेता है कि बचपन से अब तक उसने जितने भी सपने देखे थे उन्हें एक नयी ऊचाई मिलेगी, नया आयाम मिलेगा। आज उन्ही विश्वविद्यालयों में शिक्षा के माहौल को खराब किया जा रहा है। छात्रों के भविष्य को अंधेरे में डाला जा रहा।
                  बचपन के दिनों की बाद आती है। शाम का वक्त जैसे ही होता था, सूरज क्षितिज के पार जा चुका होता था और हल्का हल्का अँधेरा आँखों के सामने होता था। कुछ लोग मुहल्ले के इकट्टा हो जाते थे और बातें करना शुरू कर देते थे। बातों बातों में विश्व भर की रोचक जानकारी सुनने को मिल जाती थी। कभी कभी कुछ ऐसे भी तथ्य सामने आ जाते थे, जिनको सुनकर आश्चर्य भी होता था, कभी कभी तो चौक भी जाते थे कि हाँ ऐसा भी होता है, तो कभी कभी अनायास ही मुँह से निकल जाता था "अपने भारत में"। वो ऐसे तथ्य थे जो आज तक किताबों में नहीं छपे और ना ही छपेगें।
                 बात जब विश्वविद्यालयों की व शिक्षा की आती है आज सोचने पर विवश कर देती। इतिहास गवाह है कि नालन्दा तक्षशीला और बीएचयू जैसे संस्थानों में शिक्षा का स्तर पहले क्या था और आज क्या है। आज दिल्ली विश्वविद्यालय जहाँ भारत की सांस्कृतिक गतिविधियों में अपना परचम विश्व में लहरा रहा है तो वहीं दूसरी तरफ दिल्ली का दूसरा प्रतिष्ठित संस्थान जेएनयू बदनामी की मार झेल रहा है।
मैं आज छात्र-राजनीति को देखकर सोच में पड़ जाता हूँ क्या जिस समय विश्वविद्यालय बनाये गये तभी छात्र-राजनीति का गठन हुआ या छात्र-राजनीति संगठन के बाद विश्वविद्यालयों का। पिछले कुछ महिने पहले जेएनयू परिसर के अन्दर दस-बारह लोग इकट्ठा होते है और देश विरोधी नारे लगा देते है। मीडिया उस मुद्दे को देश के सामने उछाल देती है। फिर देश में राजनीति शुरू।
                  कुछ दिन बाद दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रतिष्ठित संसान रामजश के अन्दर कुछ ऐसा ही होता है, "बस्तर माँगे आजादी" की गूँज पूरे देश ने मीडिया के हवाले से सुनी। आज भी आधे लोगों को नहीं पता ये "बस्तर" है क्या चींज। कहीं "बस्ता/बैग" को "बस्तर" नहीं बोल दिये। खैर छोड़िये ये सब। ये सब राष्ट्र की राजनीति और छात्र राजनीति की मिली भगत से ही सम्भव है वरना विश्वविद्यालय परिसर में छात्र-हितों की लड़ाई छोड़कर राष्ट्र के उस क्षेत्र पर नारेबाजी करना जिस क्षेत्र का शिक्षा के सकारात्मक पहलू पर कोई सहयोग नहीं है। वहाँ के छात्र संस्थान परिसर में मौजूद है उनके हर पहलू को सकारात्मक दिशा देने विश्वविद्यालय प्रशासन लगा रहता है।
                  मैं जानना चाहता हूँ उन तमाम लोगों से जिन लोगों ने उन चन्द लोगों के नारेबाजी पर राजनीतिक परिवेष को गरम किया, साहित्यिक लोगों को कलम उठाने पर मजबूर किया। क्या दो-दो लाख से ऊपर की संख्या रखने वाला विश्वविद्यालय परिसर उन चन्द लोगों नारेबाजी से चलता है?? उन लोगों के सहयोग से चलता है???
                 अपने चार साल की जिन्दगी को जो विश्वविद्यालय परिसर में गुजारा हूँ उसका विश्लेषण करूँ तो मुझे तो यही लगता है कि विश्वविद्यालय प्रशासन अपनी हर कोशिश किया जो छात्र-हित में सही और सार्थक रहा है। जबकि छात्र-संगठन सिर्फ और सिर्फ अपनी धाक जमाने , छात्रों को भड़काने, छात्रों को लड़ाने का काम किया है। छात्रों को लड़ाना छोड़िये साब चुनावों में तो छात्र-नेताओं को लड़ते और अस्पतालों के लिए जाते देखा हूँ। ये छात्र-नेता क्या किसी के हक़ की लड़ाई लड़ेगें जो छात्र नेता की कुर्सी पाने के लिए ही लड़ मरे। बहोत से दृश्य ऐसे भी जिनको देखकर मन में होता था कि काश! विश्वविद्यालय प्रशासन अपने प्रशासनिक सीमा के अन्तर्गत होता। अगर होता तो पहला काम ही छात्र-संगठन को दूर करने का कर देता।
                  हाँ एक बात और जितने भी छात्र-संगठन आज है मुझे लगता है उनका गठन उल्टे सीधे कामों को करने के लिए ही हुआ है।
                  दो लाख या उससे ऊपर की छात्र संख्या रखने वाले विश्वविद्यालय या संस्थान उन सौ लोगों पर टिकी नहीं होती। आप उन चन्द सौ लोगों के आदर्शों को विश्वविद्यालय का आदर्श मानने की भूल न कीजिए। विश्वविद्यालय उन सौ लोगों के होने से नहीं बनता बल्कि उन लाखों लोगों को होने से बनता है जो विश्वविद्यालय की मर्यादा को जानते है पहचानते और विश्वविद्यालय की एक नयी पहचान बनाने में पूरी जिन्दगी लगा देते है। दिन-रात अथक परिश्रम करने वाले प्राध्यापकों से चलता है जो छात्रों की जिन्दगी को नया आयाम देने के लिए खून-पसीना एक कर देते है। उस अथक योगदान को ये राजनीति वाले कभी समझ नहीं सकते।
                रही बात मीडिया की तो साहब ये भांड के टट्टू है जिधर इनको फायदा दिखेगा उधर लुढ़क लेगे। जिधर से इनको टिआरपी बढ़ती नज़र आयेगी उधर ही खिसक लेगें। आज आप से फायदा है आप का गुण गायेंगे कल आपके पड़ोसी से फायदा है तो पड़ोसी की तरफ हो जायेगे। इनको एक सीमा और संविधान के दायरे में खड़ा कर दिया गया है जिससे भारत के खिलाफ नहीं जा सकते पर संविधान की शर्तों को हटा दिया जाय तो ये पाकिस्तान को सर पे बिठा सकते हैं। सच कहूँ मीडिया और सोनार कभी अपने माँ बाप के नहीं होते।
                                                                                                                     ©अतुल कुमार यादव

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