ढंग का काम

             एक रोज़ किसी ने बोला - अतुल बाबू! कभी बैठिये चार लोगों के बीच में? पता चल जायेगा समाज सेवा क्या होती है? किसी का दर्द क्या होता है? किसी से किसी को खोने का दुख क्या होता है? जाईये शहर में, देखिये उन लोगों को.., जो आठ घंटा से लेकर बारह घंटा सोलह घंटा बीस घंटा काम करते हैं। देखिये उन लोगों के बच्चा पार्टी को, तब न पता चलेगा घर चलाना कितना कठिन काम है। अभी आपके कपार पे बोझा पड़ा नहीं है न..? ये सब नहीं पता चलेगा आपको.. । जब बच्चा पार्टी हो जायेगी तब ये सब पता चल जायेगा। कुछ समझे?? छोड़िये आप, ये सब आपको कभी नहीं पता चलेगा... कभी नहीं मतलब कभी नहीं। बेटा ये सब काफिया रदीफ नहीं है! जिसमें रिश्ता बना लेने से काम चल जायेगा...। ये जिन्दगी के काफिया रदीफ हैं.! इसमें केवल दिमाग ही नहीं अपितु दिल दिमाग तन मन धन सब लगाना पड़ता है तब जाकर बात बनती है। पता चला कुछ! अरे बाबू हँसने से काम नहीं चलेगा!! कुछ ढंग का काम कर लो..ढंग का ! अरे सरवन भाई कहाँ गये आप.. चलिए काम पर चलिए.! ये लोग नये जमाने के लड़के हैं! इनकों कुछ समझ नहीं आयेगा। सब समझाना व्यर्थ है इन लोगों को...।
              कसम से बता रहें हैं.. सब कुछ छोड़ के उसी दिन से ढंग का काम खोज रहा हूँ पर पता नहीं ये ढंग का काम होता कौन है।

                            ©अतुल कुमार यादव

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