ग़ज़ल : बज़्म-ए-अहबाब के कुछ यूँ फ़साना हो गयें हैं

बज़्म-ए-अहबाब के कुछ यूँ फ़साना हो गयें हैं,
आज ख़ुद के पास बैठे हम ज़माना हो गयें हैं।

इश्क़-ए-जज्बात सारे ग़मज़दा है इस तरह से,
जिस तरह ख़ामोश होकर खुद निशाना हो गयें हैं।

ख़्वाब भी झड़ने लगे हैं बाजुओं को छोड़ के अब,
फूल जैसे डालियों से अब रवाना हो गयें हैं।

चल रहे हैं साथ मेरे गर नज़ारे आप बन के,
सच कहूँ तो आप जीने का बहाना हो गयें हैं।

जी बहलता है अतुल का आपकी ही महफिलों में,
क़ाफ़िला ग़म का हमारे अब फ़साना हो गयें हैं।।

                                          ©अतुल कुमार यादव

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