ग़ज़ल : हमें ही निशाना बनाने लगें हैं

हमें ही निशाना बनाने लगें हैं,
हमें ही शिकारी बताने लगें हैं।

हुनर कस रहें हैं कसौटी पे' जो भी,
बहुत याद मुझको वो आने लगें हैं।

दिली शुक्रिया मैं उन्हें दे रहा हूँ,
मुझे जो भी' हीरा बताने लगें हैं।

परिन्दों सा' पर है नया सा नशा है,
मगर पाँव बाँधें उड़ाने लगें हैं।

फ़लक तक पहुँचना रहा मेरा' मक़सद,
मुझे ही निशाना बनाने लगें हैं।

कहीं काट डाले गये पर हमारे,
कहीं हौसला वो गिराने लगें हैं।

बड़े प्यार से तो शिखर को छुआ था,
शिखर से अतुल अब हटाने लगें है।।

                       ©अतुल कुमार यादव

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