हमारी रहगुज़र जब भी हमें रस्ता बतातीं हैं,
जहाँ की ठोकरें ही तब हमें मंज़िल दिखातीं हैं।
समय के साथ चलने की सजायें मिल गयी हमको,
सफर की मुश्किलें तो अब हमें ऊपर उठातीं हैं।
मुरादें और फरियादें कभी पूरा नहीं होतीं,
दुआयें आजकल तो मंदिरों में भाव खातीं हैं।
यहाँ इंसान सच्चे हैं सुनो दुनिया फरेबी है,
यही सच बात है लेकिन समझ मुश्किल से आतीं हैं।
नहीं है राम मंदिर में नहीं रहमान मस्जिद में,
हमारी भावनाएँ मुर्तियों से हार जातीं हैं।
नहीं हिन्दू नहीं मुस्लिम नहीं मैं सिक्ख ईसाई,
सियासी कुर्सियाँ तो जातियों में बाँट खातीं हैं।
नवाबीपन लिये सुन ले अतुल इक बात मेरी भी,
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