पेट की पीड़ा

आज के जिन्दगी की
विवशता ही कुछ ऐसी है
कि आँखों के ख्वाब
न मुकम्मल होते हैं
और ना ही कभी खत्म।
बदलते लोग
और
लोगों की बदलती फितरत
न तो थमेंगी
और ना ही रूकेगी।
बस... आज की ये
लाचारियाँ
कुछ ऐसी हैं
कि एक कन्धें पर
शिक्षा का अधिकार
तो दूसरे पर
पेट की पीड़ा
टँगी
नजर आती है।
आज उन आँखों में भी
दिन रात पढ़ने की
पीड़ा पलती है, जिनमें
लाचारी, आर्थिक तंगी
और विवशता ने
अपना घर बना लिया है
और उनके
सारे सपनों को
आज
खंडित कर दिया है।
अब सामने जब भी
कोई बच्चा
शिक्षा के अधिकारों को
कंधें पर लटकाये
मुँह चिढ़ाता है
तब, आरजू के पन्नें
बिखरने लगते हैं
सपन सलोने
टूटने लगते है,
गमजदी के पर भी
निकलने लगते हैं
और अन्तत:
आँखों के सपनें
थक हार कर
बेकरारी की पीड़ा के मध्य
बेजुबान हो कर
हमेशा हमेशा
हमेशा के लिए
मजबुरी और गरीबी की
इन पसरी
चहरदिवारियों में
दफन हो जाते हैं।
✍©अतुल कुमार यादव

No comments: