कुछ इस कदर मर्ज है

                                                                  चित्र - गूगल से साभार

आज कुछ इस कदर मर्ज है फिजायें,
आज कुछ झिझकी-झिझकी है दुआयें,
आज सिर भी टकराया है पत्थर से,
और लौट कर चली आयी है सदायें,
मुँह छुपा कर किसी के बाहों में,
आज फिर सिसक रही है वफायें,
ना जाने क्या सोच कर इस मन ने,
अनेकों पुष्प एक तस्वीर पर चढायें,
बिजलियाँ देख ली इस गगन की,
और देख ली इस जहाँ की घटायें,
रात भर आज आ रही हँसी यादें,
जिससे नीदों में भी सब मुस्कायें,
ना जाने किसकी सजा मुझे मिली,
और हम उन गुनाहों को सजायें,
जो महक थी "अतुल" के मन की,
आज उसे हवा भी जहाँ में उड़ायें॥

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