मंजिल चुना पर सपनों में

                                                           चित्र - गूगल से साभार




मंजिल तो चुना पर सपनों में कहा दम था,
रास्तों पर बढ़ा कदम पर हौसला ही कम था,
जब गिरा रास्तों पर लोगों को इसका गम था,
आँख से पुछा हाल तो आँख का इसारा भी नम था,
छोड़ आशियाना कर्मपथ पर निकलना यादगार था,
यादों की नदी में बाढ़ जैसा लहराता पानी श्रृंगार था,
अपनी सीमित सोच से वादियाँ खिलाता संसार था,
सिर पर आजमाईसों की जिन्दगी का कश्ती सवार था,
करके बहूत जुर्रत जो सजा घोंसला वो ही विश्राम था,
खुशी दिलाने वालों की सूची में अपनों का योगदान था,
अब हमारी वही खुशी छिनने में वक्त का बड़ा हाथ था,
ऐ दोस्त! तु हर वक्त किस वक्त की बात करता है,
वक्त से पुछा वक्त तो वक्त भी वक्त का ही भक्त था,
जब पुछा मंजिल से ही मंजिल पाने का आसान हुनर.
तो उसके उत्तर में आजाद परिन्दों का नाम भी कम था,
कल तलक जिसे मंजिल पाने की महक का इन्तजार था,
उसकी तीखीं प्यास की जुबाँ ने जो चखा वो जहर था,
दिल को दिल की कश्ती घिरा दिखता आस-पास था,
ऐसी बहारों के मध्य आह भरता भी आसमान था,
बिछ रहे पुष्पों में मौसम का "अतुल" ही शिकार था॥