आशियाना एक नया बुनने चला


                                                                    चित्र - गूगल से साभार

आशियाना एक नया बुनने चला हूँ मैं,
तिनका-तिनका आस का चुनने लगा मैं,
मोह और फर्ज से बाँधकर अपनी जिन्दगीं,
एक तसल्ली भरा सफर बनने लगा हूँ मैं,
किस-किसने बिखेरे है काँटे हमरी राह में,
इनसे कभी लड़ने तो कभी बचने लगा हूँ मैं,
ताजगी कुछ, हँसी कुछ, चहल कुछ प्यार की,
हादसे, लाचारियाँ अश्क भी बनने लगा हू मैं,
लड़खड़ाता देख किसी ने पुछ लिया "है कौन?",
हँसकर बोला कुछ नहीं रास्ता भटक गया हूँ मैं,
आज फिर मौसम हँसी है झुण्ड में सब चल रहे,
फिर ना जाने क्या सोच घर को मुड़ गया हूँ मैं,
क्या "अतुल" क्या अतल क्या अतुल्य है फिजा,
साथ सबका है मिला फिर भी सोचने लगा हूँ मैं॥

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