घड़ी-घड़ी से कह रही

                                चित्र - गूगल से साभार


घड़ी-घड़ी से कह रही कब तलक चलूँ तेरे साथ,
थक कर तु बेहाल हुआ फिर भी हूँ मै तेरे साथ,

चाँद ने भी देख लिया है जो छिपे थे तेरे घाव,
कोई अकेला पथिक नहीं जिसे ना हो चमन का चाव 

बहता दरिया बहता रहता रोक सकी ना जिसे दिवार,
जायेगी सब तोड़कर समन्दर तलक गंगा की धार,

मन से अब बँधती जा रही ये मन की तीखी झंकार,
जितने कसते जा रहे हम निश्कंठित वीणा के तार,

सभी घुड़दौड़ में शामिल जो है मंजिल से अन्जान,
पहुँच रहे अन्त में वही जहाँ से चले थे सब नादान,

सोने का पिजड़ा बना कर वो डाले थे जिसमे जान,
फूक-फूक कर चलने से बेहतर भूली सहज उड़ान,

गहनता के इस शहर में रखो अपने सरल व्यवहार,
जग जीवन में खोजो हर पल खुशियाँ अपरम्पार,

महक नहीं पुष्प बनने का करते रहो अथक प्रयास,
प्राकृतिक उपवन को "अतुल" बनाओ अपना आवास॥