बचपन

                                                                चित्र - गूगल से साभार

 वो घर का आंगन,
वो माँ का चुल्हा,
वो किलकारी हमारी,
वो पह्ली रोटी,
और हमारी एक ही जिद,
मेरी सारी मेरी सारी,
फिर माँ का गुस्सा,
पिता जी का आना,
हम सबका चुप हो जाना,
वो लड़ना झगड़ना,
वो शिकायतें लगाना,
वो हँसना हँसाना,
वो रोना रुलाना,
वो बात-बात में निकलती गाली,
लगती कल की बात निराली॥




वो बचपन,
वो स्कूल,
वो बचपन के साथी,
खेल-कूद में शेर-वो-हाथी,
कक्षा में सिर चकराना,
इम्तिहान से घबराना,
वो आम की डाली,
गेहूँ की बाली,
लगती कल की बात निराली॥




मोहल्ले का नुक्कड़,
आईस्क्रीम का ठेला,
वो गिल्ली वो डंडे,
वो कंचे वो गुटटे,
वो वेरी वो चूरन,
वो कुल्फी वो भुट्टे,
वो रातों के सपनें,
वो सपनों की रातें,
बनती हर बात सवाली,
लगती कल की बात निराली॥




वो दिवाली की रात,
पटाखों की घात,
वो होली का रंग,
दोस्तों का संग,
दशहरें की धूम,
टी.वी. पे शाका-लाका बूम-बूम,
वो भाई की उम्मीद,
वो बहन की आशा,
वो माँ की आशीष,
पिताजी की मौन भाषा,
फिर यारों का यकीन,
किसी की अभिलाषा,
संबन्धों में जीवन की परिभाषा,
वो रिश्तों की हरियाली,
लगती कल की बात निराली,




अब वो पीछे छूट गये,
लगता सब के सब रूठ गये,
चाहत के थे जो गुब्बारे,
क्षण भर में ही फूट गये,
चाँद सितारों की चाहत में,
नाजूक सपनें टूट गये,
उन सारें घायल सपनों में,
लगता जैसे साथ है कोई,
जैसे कल कि बात है कोई,
फिर अमावश की वही रात काली,
लगती कल की बात निराली॥