निराशा की नदी

                                                                    चित्र - गूगल से साभार




निराशा की नदी सर-सराती चल पड़ी,
सोच की कमजोर डोर तोड़कर चल पडी,
तोड़ कर बंदिशों को इस-कदर मचली हवा,
आँधी बन सारी हसरतों को ले चल पड़ी,
दिल के दरमियाँ जो सुर्ख दर्द के लम्हें थे,
आँखों की वर्षा उन्हें झर-झराती ले चल पड़ी,
फिर वही दिल, वही खुशी, वही पुरवी हवा,
पावन मकरन्द हर घर को बहा कर चल पड़ी,
फिर ह्रदय के तार मधुरता से है बज पड़े,
फिर जिन्दगी के बेसुरे श्वर बहाकर चल पड़ी,
नये हौसलों से नयी मुस्कान के अंकूर खुले,
ह्रदय की बालऋतु पतझड़ बनाकर चल पड़ी,
समय की वादियों में अतुल्य मन है "अतुल"
धुप-कुहरे के सजे मंजर बहा कर चल पड़ी॥