नदी

अन्तस की पीड़ा कहुँ या उसका बाहरी सुख,
सब कुछ समेट कर नक्स को दिखाती रही।

गाँव शहर कारखाने का पानी नदी लाती रही,
स्वच्छता के नाम पर झुनझुना बजाती रही।

विकास के पन्नों से नदी हर पल शर्माती रही,
राजनितिक औलादें कसम उसकी खाती रही।

नदियों की जब बातें करता सपनें बतियाते रहे,
नदी हर पल धीर बाँधती मुझको समझाती रही।

बर्फ बावड़ी बादल बारिश सब धरा पर आते रहे,
ऊँचे पर्वत से गहरे सागर तक नदी जाती रही।

खुले भाग में नदी कभी नाचती कभी इठलाती रही,
वही पत्थरों की ओंट से टकरा कर बतियाती रही।

सकुचाती सहमती यादें नयन तक पल-पल आती रही,
नदी अपने संकेतों से सपनें में ’अतुल’ मन भाती रही।