जितना तुम सोचते हो उतनी मुझमें खुमारी नहीं है,
गीत-गजल लिखता हूँ पर ईश्क की बिमारी नहीं है।
तुम जो भी सोचते हो वो हर पल सोचो सम्भल कर,
ऐसा वैसा सोचने में कोई भी गलती तुम्हारी नहीं है।
लिखता जरूर हूँ पर लिखने में कोई सुमारी नहीं है,
शौक बस ही लिखता हूँ कहानी जो हमारी नहीं है।
लोग यहाँ कहने को कहते है आज-कल बहूत कुछ,
पिछड़े जरूर है पर एक शब्द में हम बिहारी नहीं है।
व्यवहार में कभी दिख जाये कमी तो माफ करना,
अभी इतना भी असहिषुण और अत्याचारी नहीं है।
गर कभी जरुरत पड़े हमारी तो तुम याद करना,
आऊँगा दौड़ते हुये अभी इतना व्यभिचारी नहीं है।
क्या पाओगें उछाल कर मेरे आचरणों पर कीचड़,
सच यही है कि मैं किसी हसीना का पुजारी नहीं हूँ।
गर तुमने ठान ही लिया है शर्मशार करना ’अतुल’,
कर लो तुम शौक से अब इतने भी ब्रह्म्चारी नहीं है॥
©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"
©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"
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