असहिषुण भारत

कुछ लोगों के जुबाँ में कैंची की धार आने लगी,
अब भारतीयता भी उनके बच्चों को खाने लगी।

मेरी समझ से लगता है सोहरत रुतबा रौंनकें,
जो देश से मिली थी उन पर रौंब दिखाने लगी।

पुछ लेते एक बार जाकर देश के पहरेदारों से भी,
क्या उनको देश में असहिष्णुता नजर आने लगी।

वो खड़े रहते है सीमाओं पर रात-दिन आठों पहर,
तुम जैसों से आँच उनकी वीरता पर आने लगी।

गर तुम्हें नजर आ रही थी सच में असहिष्णुता,
तो निकल जाते उस जगह पर जो रास आने लगी।

शब्दों से मत बाटों यार देश को लाल और हरें में,
तुम जैसों की वजह से भारत माँ गालियाँ खाने लगी।

लगाया था दिल में जो अपने देश का तिरंगा "अतुल",
उसे देशद्रोही औलादें काला बता अँगुलियाँ उठाने लगी॥
                                             ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

दोस्ती और बधाई

तुम्हारी मित्रता को आज,
मैं स्वीकार करता हूँ।
नहीं पहचानता तुमको,
फिर भी बात करता हूँ।
दोस्त बन कर रहूँ तुम्हरा,
यह करार करता हूँ।
रहे हर दम तुम्हारे होठों हँसी,
दर्द का बंटाधार करता हूँ।
है जन्मदिन आज तुम्हारा,
इसकी सौगात भरता हूँ।
जियो हजारों साल तुम यही,
कामना बार-बार करता हूँ।
आन बान मान हर जगह मिले,
ऐसी दुआ सौ बार करता हूँ।
मंजिल सोहरत मिले तुमको,
"अतुल्य" वैभव नाम करता हूँ।
गर आरती हो दीप की तो,
तेल बाती प्रकाश भरता हूँ।
स्वयं कि मित्रता भेंट मैं,
तुमको उपहार करता हूँ।
नहीं पहचानता तुमको,
फिर भी बात करता हूँ।
प्रिये तुम्हारी मित्रता को आज,
मैं स्वीकार करता हूँ॥
              ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

हकीकत-ए-हालात

जितना तुम सोचते हो उतनी मुझमें खुमारी नहीं है,
गीत-गजल लिखता हूँ पर ईश्क की बिमारी नहीं है।

तुम जो भी सोचते हो वो हर पल सोचो सम्भल कर,
ऐसा वैसा सोचने में कोई भी गलती तुम्हारी नहीं है।

लिखता जरूर हूँ पर लिखने में कोई सुमारी नहीं है,
शौक बस  ही लिखता हूँ कहानी जो हमारी नहीं है।

लोग यहाँ कहने को कहते है आज-कल बहूत कुछ,
पिछड़े जरूर है पर एक शब्द में हम बिहारी नहीं है।

व्यवहार में कभी दिख जाये कमी तो माफ करना,
अभी इतना भी असहिषुण और अत्याचारी नहीं है।

गर कभी जरुरत पड़े हमारी तो तुम याद करना,
आऊँगा दौड़ते हुये अभी इतना व्यभिचारी नहीं है।

क्या पाओगें उछाल कर मेरे आचरणों पर कीचड़,
सच यही है कि मैं किसी हसीना का पुजारी नहीं हूँ।

गर तुमने ठान ही लिया है शर्मशार करना ’अतुल’,
कर लो तुम शौक से अब इतने भी ब्रह्म्चारी नहीं है॥
                                      ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

गीत (अनुभवहीन प्रथम गीत)

तेरी दर पर खड़ा होकर,
मैं फरियाद करता हूँ।
झलक पाने की खातिर ,
मै तुझको याद करता हूँ।१

बन्द दरवाजा खोल दे प्रिये,
बाहर मैं पुकार करता हूँ।
तरस आता नहीं तुमको या,
वक्त मैं बर्बाद करता हूँ।२

रहूँ मैं हर पल तेरे साथ,
यह मैं करार करता हूँ।
ईश्वर मैं समझ तुमको,
भक्त बन प्यार करता हूँ।३

अरे भूल जा बीती बातों को,
उनका अवसान करता हूँ।
नयी चहल नयी पहल की,
अब मैं बात करता हूँ।४

सम्भल कर खुद मैं दर्द का,
अब बंटाधार करता हूँ।
नयी मंजिल नयी उँचाई की.
फिर तलाश करता हूँ।५

तेरी गलतियों को फिर से,
मैं दरकिनार करता हूँ।
अभी भी बैठ दरवाजे पर,
तेरा इन्तजार करता हूँ।६

दिल का हर मौसम प्रिये,
तुम्हारे नाम करता हूँ।
अपने प्यार की खातिर,
अपने को निलाम करता हूँ।७

आज बैठकर तेरे दर पर,
तुझे ही याद करता हूँ।
हुँ सिकन्दर मैं यहाँ का फिर भी,
निवेदन बार-बार करता हूँ।८

जिन्दगी हो जिन्दगी बन,
तुमसे प्यार करता हूँ।
देखने को तेरा चेहरा,
आग्रह बार बार करता हूँ।९

बसा कर तस्वीर दिल में,
तेरा दिदार करता हूँ।
ईश्वर मैं समझ तुमको,
भक्त बन प्यार करता हूँ।१०  
             ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

बिना मतलब कभी घुमा मत करो

बिना मतलब कभी घुमा मत करो,
कभी कभार अपने घर भी रहा करो।

जो किताबें है शहर में सच्ची गज़ल की,
उसे चुपके से छुप-छुपकर पढ़ा करो।

मुझे तो अब अखबार सी लगती है,
प्यार-मोहब्बत की सारी कहानियाँ।

जो किसी ने कहा नहीं वो सुना करो,
जो सुना नहीं वो सबसे कहा करो।

जो छुपकर चल रहे है पर्दे की आड़ में,
उनकी भी सच्चाई अब  बेपर्दा करो।

वो बन सँवर कर गर चल रहे है ’अतुल’
तो फिर तुम भी उनके संग चला करो॥
                   ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

हालात_ए_शहर

कभी इधर देखा कभी उधर देखा,
उदासी में डुबा मैने ये शहर देखा।
बदलता रहा हर-पल सारा नजारा,
जब कभी गौर से अपना शहर देखा।
जख्म भर जाता है हर दिल का यहाँ,
माँ की दुआओं में इतना असर देखा।
खो गया है यहाँ पर सब कुछ हमारा,
जब भी यहाँ पलट कर तुम्हें देखा।
खुशी गयी ही नहीं कभी छोड़कर हमें,
जब कभी भी गम से मुँह मोड़कर देखा।
                        ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

मन का राजा

अपने मन का राजा बनना,
अपने को ही अच्छा लगता है।
पर जो सबके मन को भाये,
वो सबको ही अच्छा लगता है।
झुके नैन कम्पित होठों से,
लज्जा संवर्धन अच्छा लगता है।
आवेशित कर ले जो जीवन को,
वो ही आवेश अच्छा लगता है।
जब प्यार से कोई समझाये,
तब सब कुछ अच्छा लगता है।
एक ह्रदय को सकल ह्रदय का,
पावन प्रतिविम्ब अच्छा लगता है।
जब खोये पथिक संग नाचे खुशियाँ,
तब जीवन अभिनन्दन अच्छा लगता है।
जीवन का यह मंदिर हुल्लड़-उल्लास,
अब इन नयनों को अच्छा लगता है॥
                         ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

खयालात

दिल दिमाग से उसका ख्याल क्यूँ नहीं जाता,
चेहरे से उसके नकाब उतर क्यूँ नहीं जाता।

उसने मेरे ख्यालों में बना डाला है जो आशिय़ाँ,
पलकों से टूट कर अब बिखर क्यूँ नहीं जाता।

कही गर दिख आये तो मेरी उठती नही नजर,
तन्हाईयों से मेरे उसका असर क्यूँ नहीं जाता।

अक्सर मेरे एहसासों को छू कर गुजर जाता है,
गर किस्मत है मेरी तो सँवर क्यूँ नहीं जाता।

आज उसके हर अल्फाज दर्ज है मेरे जेहन में,
गर्दिश में लिखता हूँ तो छप क्यूँ नहीं जाता।

अगर मलाल है उसे अपने किये हुये गुनाहों का,
तो फिर झूठी गवाही से मुकर क्यूँ नहीं जाता।

सैलाब जो उमड़ कर उठा है आज मेरे सीने में,
पूछता हूँ आज ते तूफान थम क्यूँ नहीं जाता।

घनघोर अन्धेरों से आज करके बगावत "अतुल",
दिपक की तरह ही आज निखर क्यूँ नहीं जाता॥
                               ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

रात और मै.

रात आयी है तो दिन को भी आना होगा,
तन्हाई के आलम में अपना ठिकाना होगा।

वादा किया है आने का तो तुम्हें आना होगा,
ना झुठी फरस्ती और ना कोई बहाना होगा।

मैं कर लुँगा इन्तजार तुम्हारे आने तक का,
पर आते ही मत बोलना अभी जाना होगा।

मैनें माँगा है खुदा से हरपल साथ तुम्हारा,
तो यूँ चेहरा दिखाकर ना सितम ढाना होगा।

हर साँसों के संग अब तुम्हारी याद आती है,
क्या अब यादों के संग जीवन बिताना होगा।

दूर होकर लगता है अब तू भुला रही मुझको,
आकर तुम्हें ही अब यह भ्रम मिटाना होगा।

घूँट-घूँट कर अब दम तोड़ रही है मेरी साँसे,
मरा तो जनाजा तेरी गलियों से रवाना होगा॥
                           ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

कुछ मिले

कुछ यहाँ पर है अपने मिले,
तो कुछ वहाँ पर पराये मिले,
जो भी मिले है जिन्दगी में,
बस  हमें गिने-गिनाये मिले।

कही पर कुछ है हारे मिले,
तो कही पर कुछ है सहारे मिले,
साँस भी मिल गयी जो दुबारा,
तो लगा जिन्दगी के है किराये मिले।

कुछ यहाँ पर है अपने बनकर चले,
तो कुछ वहाँ पर है सँवर कर चले,
जब गिर कर धरा पर बन्द हुयी साँसे,
तब कफन हमको भी सिले-सिलाये मिले।

किसी को यहाँ पर है छप्पर  मिले,
तो किसी को वहाँ पर है खप्पर मिले,
किसी को छत भी नसीब ना हुयी है यहाँ पर,
तो वही पर कुछ है महलों के सताये मिले।

किसी के हाथों में यहाँ पर है खन्जर मिले,
तो किसी के दिल वहाँ पर है बन्जर मिले,
सौंप दूँ मै अपने जिन्दगी की बागडोर,
खुदा आकर जो मुझसे एक बार मिले।

ये दुनियाँ का यहाँ पर जंजाल है,
मोह-माया फँसा अपना कंकाल है,
खुद ही आकर यहाँ पर हम फँसते मिले,
तो कुछ वहाँ पर इसमें छटपटाते मिले॥

नदी

अन्तस की पीड़ा कहुँ या उसका बाहरी सुख,
सब कुछ समेट कर नक्स को दिखाती रही।

गाँव शहर कारखाने का पानी नदी लाती रही,
स्वच्छता के नाम पर झुनझुना बजाती रही।

विकास के पन्नों से नदी हर पल शर्माती रही,
राजनितिक औलादें कसम उसकी खाती रही।

नदियों की जब बातें करता सपनें बतियाते रहे,
नदी हर पल धीर बाँधती मुझको समझाती रही।

बर्फ बावड़ी बादल बारिश सब धरा पर आते रहे,
ऊँचे पर्वत से गहरे सागर तक नदी जाती रही।

खुले भाग में नदी कभी नाचती कभी इठलाती रही,
वही पत्थरों की ओंट से टकरा कर बतियाती रही।

सकुचाती सहमती यादें नयन तक पल-पल आती रही,
नदी अपने संकेतों से सपनें में ’अतुल’ मन भाती रही।

कुछ दोस्त और यादें (नवकविता)

कल शाम के वक्त,
जब तुम सब मिले थे ना,
तब तुम सबको थोड़ा थोड़ा,
चुरा लिया था,
अरे हाँ सच में,
सच में चुरा लिया था,
किसी से किसी की खुश्बू,
किसी से किसी की हँसी,
किसी से किसी का अक्श,
किसी से किसी का नक्श,
जब एक तरफ जा कर,
चाय की चुस्कियाँ ले रहे थे ना,
उस हँसीं पल को भी मैं,
कैद कर लिया था,
रात को घर आकर जब मैं,
ये सारा सामान चोरी का,
निकाल रहा था ना,
तब बन्द आँखों से देखा,
पलकों के पल्लों पर,
कोई छुप-छुप कर,
द्स्तक दे रहा था,
जब आँखों की पलकें,
खोल कर देखा तो,
रात का सिपाही(चाँद),
अपनी वर्दी के सितारें टाँके(रात),
ख्वाबों की हथकड़ी लिये,
बड़ी शालीनता से,
मन्द मन्द मुस्कुराते हुये,
आवाज लगा रहा था,
क्या तुम सब बताओगे?
चाँद के पुलिस स्टेशन में,
तुम सबने मिल कर,
कोई रपट दर्ज करायी थी?
अरे बताओ ना..?
करायी थी ना.....?
        ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

दोस्ती की कीमत

तुम्हारी कमी अब कभी खलेगी नहीं,
तुम आ भी गये तो हमारी जमेगी नहीं।

सुख गयी है जो दोस्ती की नेह बगिया,
कितना भी डालो पानी अब खिलेगी नहीं।

दिल के रिस्तों का जो करते रहे दिखावा,
सच कहूँ तो ईश्क की सीढ़ी टिकेगी नहीं।

कितना भी रख लो अब तुम पाक इरादे,
दुबारा हमारी दोस्ती तुम्हें मिलेगी नहीं।

तब क्या सोच कर तुम गये थे यहाँ से,
हमारी बर्बादियाँ कभी भी थमेगी नहीं?

गलत तो हर बार तुम वही पर रहे दोस्त,
जो सोचा विकास रुपी गाड़ी चलेगी नहीं।

अब क्या कहने लौट कर चले आये ’अतुल’,
क्या अब सच्चाई कभी ये आँखे कहेगीं नही॥

शहर-ए-दंगा

कहने को था सिर्फ नाच नंगा हो गया,
एक बार फिर मेरे शहर में दंगा हो गया।

जो छुप-छुप कर करता रहा सियासत,
समय फिरा तो बेनकाब बन्दा हो गया।

कुछ पानी पी कर तो कुछ ऐसे ही सो गये,
आज शहर का चौपट सारा धन्धा हो गया।

कुछ लुटाते तो कुछ कमाते रहे गालियाँ,
सिर्फ कहने को था व्यापार मन्दा हो गया।

लोग एक-दुसरे को काटते और बाटते रहे,
सच में यह सारा खेल अब गन्दा हो गया।

सब एक दुसरे पर ही करते रहे खुला वार,
जुल्म देखकर लगा जीवन रन्दा हो गया।

सारे सितम ढोता और लिखता रहा "अतुल"
पर अब तादाद में कुचल कर ठण्डा हो गया॥
                             ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"