खुदा ने सौंप दी मुझको

खुदा ने सौंप दी मुझको कई दुनिया हिसाबों में,
सुकूँ मिलता नहीं बस आज दौलत की किताबों में।

फँसे हम ही रहे अब तक गली में आप की देखो,
खुदा ने रख दिया नक्शा जमीं का माहताबों में।

तलाशी हैं सभी लेते मगर हासिल नहीं कुछ भी,
मिले हैं सब सबब मुझको सियासत के नकाबों में।

हजारों ख्वाहिशें मेरी दफन हैं आज सीने में,
नजर के ही नजारे हैं हया के इन हिजाबों में।

कली अब तोड़ मत लेना समझकर फूल जज्बाती,
बिखरती है सिमटती है बनी काँटा गुलाबों में।।
                                       ✍©अतुल कुमार यादव

अश्क का छोटा कतरा

मैं अश्क का
एक छोटा सा
वो कतरा हूँ,
जिसे तुम
जब चाहो तब
बहा सकते हो,
जब चाहो तब
अपने लफ्जों में
अपने अल्फाजों में
अपनी भावनाओं में
मोतियों की तरह
पिरो सकते हो।
वैसे भी स्याह दर्द
की राहें
इतनी भी
आसान नहीं होती
कि तुम बस चलते जाओ
और तुम्हें तनिक भी
तकलीफ न हो।
तुम जब भी
मेरे बनाये रास्तों
चलोगे...
तो यादों का गीलापन
तुम्हें रोकेगा, टोकेगा
और अन्तत:
खुद में समेट लेगा।
तुम मुझे नजरों की राह
से गिरा तो रहे हो
पर क्या तुम
मुझे इन राहों पर चलकर
भूला पाओगे?
अगर भुला सकते हो
तो भूला देना,
और अपनी यादों की,
वादों की,
इरादों की दुनियाँ में
एक चिराग की तरह
रौशन होकर
अपने जिन्दगी की राहें
खुशियों से सजा लेना।
©अतुल कुमार यादव.

थक हार कर दिल का पन्ना

थक हार कर दिल का पन्ना,
अब धीरे से सो जाता है,
अपनों की बातें नहीं हैं करता,
बस तुझमें खो जाता है,
मेरे दिल की ज्योति राशि हो,
दिल में तुम्हें जलाऊँगा,
कभी कभी मैं तुमसे मिलने,
दिल के भीतर तक आऊँगा।

रेजा रेजा दिन निकलेगा,
रेजा रेजा रातें होगी।
तुम दिल की दिल्ली में रहना,
धीरे धीरे बातें होगी।
प्रेम की डोरी में बँधकर मैं,
अपना धरम निभाऊँगा,
कभी कभी मैं तुमसे मिलने,
दिल के भीतर तक आऊँगा।
रिश्ते नाते आज जगत में,
पल भर में मिट जाते हैं,
सुनो सुनो तुम मेरी बातें,
हम जन्मों साथ निभातें है,
आज लिये चलता हूँ संग में,
दिल में तुम्हें बसाऊँगा,
कभी कभी मैं तुमसे मिलने,
दिल के भीतर तक आऊँगा।

आज मिलन की पावन बेला है,
मंगल भाव जगाता हूँ,
जियो हजारों साल जगत में,
गीत खुशी के गाता हूँ,
गीतें गाते खुशियों की मैं,
पास सभी के जाऊँगा।
कभी कभी मैं तुमसे मिलने
दिल के भीतर तक आऊँगा।

कभी कभी मैं तुमसे मिलने
दिल के भीतर तक जाऊँगा,
जब जब यादें लहरें लेंगी,
पोर पोर खुल जाऊँगा,
गीतें गातें गातें तुमसे,
चितवन में मिल जाऊँगा,
कभी कभी मैं तुमसे मिलने
दिल के भीतर तक आऊँगा।।
               ©अतुल कुमार यादव.

सुनाओ आज दिल की तुम

सुनाओ आज दिल की तुम तुम्हारा हाल कैसा है?
तुम्हारे लोग कैसे हैं कहो ये साल कैसा है?

नहीं जीना हमें मरना कभी अब इश्क में फँसकर,
नहीं मैं जानता कुछ भी बता दो ख्याल कैसा है?

घरौंदा हो भले छोटा निवाला तुम ग्रहण करना,
मगर मत पूछ लेना ये कि चावल दाल कैसा है?

हमें बस ख्वाब मिलता है अभी दिन के उजालों में,
निगाहों में हकीकत का भरा जंजाल कैसा है?

अदालत की बिकी झूठी गवाही दिल कुरेदीं हैं,
शहर की तब हवाओं में मचा भूचाल कैसा है?

बहर मालूम होती तो मुकम्मल हर नजर होती,
ग़ज़ल की भाष में सुन लो अभी ये लाल कैसा है?
                                         ✍© अतुल कुमार यादव

राजगुरू सुखदेव भगत

राजगुरू सुखदेव भगत को हरदम शीश नवाता हूँ।
भारत के कदमों में झुक कर मैं श्रद्धा सुमन चढ़ाता हूँ।

आजाद लहू है आज देश का जिनके दम से,
उनको जिन्दा आज देश के रज कण में पाता हूँ।

जिनकी शहादत है जिन्दा अब तक देशी माटी में
वैसा ही मै वीर सपूत इस मिट्टी में उपजाता हूँ।

कलम ऋणी है देश ऋणी है अब तक जिनकी गाथाओं का,
नतमस्तक सम्मुख मैं उनके अक्सर खुद हो जाता हूँ।

इन्क़लाब ज़िन्दाबाद अब गूँज उठे भारत वन में,
मेरा अन्तर्मन तो वन्दे मातरम् गाता औ दोहराता हूँ।
                                            ✍©अतुल कुमार यादव

पेट की पीड़ा

आज के जिन्दगी की
विवशता ही कुछ ऐसी है
कि आँखों के ख्वाब
न मुकम्मल होते हैं
और ना ही कभी खत्म।
बदलते लोग
और
लोगों की बदलती फितरत
न तो थमेंगी
और ना ही रूकेगी।
बस... आज की ये
लाचारियाँ
कुछ ऐसी हैं
कि एक कन्धें पर
शिक्षा का अधिकार
तो दूसरे पर
पेट की पीड़ा
टँगी
नजर आती है।
आज उन आँखों में भी
दिन रात पढ़ने की
पीड़ा पलती है, जिनमें
लाचारी, आर्थिक तंगी
और विवशता ने
अपना घर बना लिया है
और उनके
सारे सपनों को
आज
खंडित कर दिया है।
अब सामने जब भी
कोई बच्चा
शिक्षा के अधिकारों को
कंधें पर लटकाये
मुँह चिढ़ाता है
तब, आरजू के पन्नें
बिखरने लगते हैं
सपन सलोने
टूटने लगते है,
गमजदी के पर भी
निकलने लगते हैं
और अन्तत:
आँखों के सपनें
थक हार कर
बेकरारी की पीड़ा के मध्य
बेजुबान हो कर
हमेशा हमेशा
हमेशा के लिए
मजबुरी और गरीबी की
इन पसरी
चहरदिवारियों में
दफन हो जाते हैं।
✍©अतुल कुमार यादव

लघु-कथा

आज बस के कोने में आखिरी सीट पर बैठा लोगों को चढ़ता उतरता देख रहा था। कुछ लोग बस में चढ़े टिकट लिये और सफर समाप्त होते ही उतर लिये। वही कुछ लोग चढ़े तो लोगों को खुद से जोड़ने लगे,राजनीति से लेकर देश काल की हजारों बातों का ज्ञान बाटने लगे। शेष बचे कुछ लोग बस में चढ़े तो टिकट लिये दो कदम इधर उधर हुए और दस मिनट के सफर में ही लोगों से लड़ने झगड़ने लगे। ऐसा देख कुछ लोग बीच बचाव में लग गये तो कुछ उकसावे में और कुछ लोग सब कुछ देखते सहते उदासीन बने रहे, जो स्वाभाविक भी है। शायद यही "बस" दुनिया है और सवारियाँ हम आप जैसे करोड़ों लोगों की जिन्दगी और लड़ना झगड़ना चार दिन की जिन्दगी के सुख दुख। अब निर्भर हम पर करता है कि हमें सुख दुख में विचलित होना है या एक सा बने रहना है।
                                                                                                                                                   ©अतुल कुमार यादव.

जिन्दगी में खैरियत का

जिन्दगी में खैरियत का सिलसिला कुछ भी नहीं,
हम उसूलों पर चलें हैं सिरफिरा कुछ भी नहीं।

वक्त की पाबन्दियों में चल रहा मैं रात दिन,
दरबदर हूँ मैं भटकता माजरा कुछ भी नहीं।

हर घड़ी है याद रखनी बस बड़ों की बात को,
ज्ञान की इन वादियों का दायरा कुछ भी नहीं।

हर तरफ अंधेर है यह रौशनी को क्या पता?
इक जलाना दीप मुझको मशवरा कुछ भी नहीं।

हसरतों को तुम लिए दिल में उतरकर देख लो,
इन निगाहों का तेरे बिन आसरा कुछ भी नहीं।
                                     ©अतुल कुमार यादव.

ग़ज़ल : भोजपूरी

जिनिगिया के रस्ता बतावे के मन बा,
जिनिगिया के रस्ता दिखावे के मन बा।

केहूँ न संघें  ना केहूँ के संग बा,
जिनिगिया के संघी बनावे के मन बा।

सुख दुःख के पंक्षी उड़े लागल मन में,
जिनिगिया के पंक्षी उड़ावे के मन बा।

मिले लोर कबहूँ जो आँखी में अपना,
जिनिगिया के हर गम छुपावे के मन बा।

केहुये न आपन ना केहुये पराया,
जिनिगिया के दुश्मन बनावे के मन बा।

कबो गीत सोहर गावे ला मनवा... हो,
जिनिगिया के सरगम बजावे के मन बा।

दिलवा में नेहिया भरल भोजपूरी.. त,
जिनिगिया के "आखर" बनावे के मन बा॥
                             © अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

ग़ज़ल : कब तक आँखें

कब तक आँखें चार करोगी?
बोलो कब तक प्यार करोगी?

उल्टे सीधे लहजों से तुम,
कब तक आँखें खार करोगी?

प्यार नहीं है दिल से तुमको,
गलती तो हर बार करोगी?

नफरत लेकर अपने मन में,
हमसे कितना प्यार करोगी?

दिल से दिल ये पूछ रहा है,
कब तक ऐसे रार करोगी?

माना जीवन यह दरिया है,
डर के कब तक पार करोगी?

सच सच तुम इतना बतला दो,
मुझको कब स्वीकार करोगी?
                   ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

गीत

जीवन की अन्तिम बेला में,
सोचा था बस गीत लिखूँगा।
बैठे-बैठे साथ सभी के,
सोचा था बस प्रीत लिखूँगा।

नहीं लिखा है गीत अभी तक,
नहीं लिखा है प्रीत अभी तक।
नहीं लिखूँगा मानव का मन,
नहीं लिखूँगा दानव का तन।
अभी निराशा के इस क्षण में,
नहीं कलम के भाव लिखूँगा।
नहीं लिखूँगा नहीं दिखूँगा,
नहीं दिखूँगा नहीं लिखूँगा।
काव्य जगत में जब आऊँगा,
नये सपन को तब लाऊँगा।
नई नई फिर रीत लिखूँगा,
नई नई फिर प्रीत लिखूँगा।
जीवन की अन्तिम बेला में,
सोचा था बस जीत लिखूँगा॥

नई दिशायें साथ न होगी,
भले किसी बात न होगी।
मालूम है मुझको बस इतना,
पहले जैसी रात न होगी।
पहले जैसे रात न होगी,
पहले जैसे बात न होगी।
सहज सरल मुझको रहना है,
नहीं किसी से कुछ कहना है।
पर लगता अंतिम बेला में,
नहीं लिखूँगा नहीं दिखूँगा।
नहीं लिखा तो नहीं लिखूँगा,
नहीं दिखा तो नहीं दिखूँगा।
जीवन के अन्तिम बेला में,
नहीं दिखूँगा नहीं लिखूँगा॥
                    ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"