अलग दुविधा

दुविधा दुविधा सब दुविधा है,
अब किसकी मैं आवाज लिखुँ।

क्या आवाज लिखुँ उस बच्चे का,
जो सड़क पर जाकर लेटा है।
क्या विरह लिखुँ उन पत्तों का,
जो गिरा पड़ा है और सुखा है।
क्या उन गलियों की बात लिखुँ,
जो देह बेचकर अब खाता है।
क्या उस नेता का ध्येय लिखुँ,
जो स्वार्थसिध्द को जाता है।
सब ज्ञात तुझे आभास तुझे,
किस बात का अब मैं नाज लिखुँ।
दुविधा दुविधा सब दुविधा है,
अब किसकी मैं आवाज लिखुँ।

क्या कहानी लिखुँ उस बेटे की,
जो बाप के रिस्तों को ना समझे।
क्या व्यथा लिखुँ उस माता की,
जो अपना ही बच्चा खो बैठे।
क्या लिखुँ शब्द जिनसे मिलकर,
कई तरह के अब तक ग्रंथ लिखे।
क्या लिखुँ उस जीवन शैली को,
जो पहले डाकू फिर सन्त बने।
क्या लिखुँ उन जज्बातों को अब,
जो भारत माँ की रक्षा में अड़े।
दुविधा दुविधा सब दुविधा है,
अब किसकी मैं आवाज लिखुँ।
               ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

हार गया मन तुझे बुलाकर

जगे सपनों को फिर सुलाकर,
हार गया मन तुझे बुलाकर।

काँटो से भरकर राहों को,
आँसू की लड़ियाँ बिखराकर,
अर्थी निकाली है हमने,
कोरे पन्ने पर शब्द सजाकर,
दर्दों का आलिंगन कर लूँ,
खुशियों को पैगाम बनाकर,
देख अभी भी काम बचा है,
कर लूँ अपनी सांस बचाकर,
यूँ सपनों को फिर सुलाकर,
हार गया मन तुम्हें बुलाकर।

क्षुधा पिपासा मिथ्या कर दे,
जीवन की टंकार बनाकर,
भ्रमित हुआ अविराम दॄश्य यह,
मन ही मन खुद को उलझाकर
सर्द हवाओं में सिकुड़ा हूँ,
अभी सुनहरा घाम बनाकर,
यूँ सपनों को फिर सुलाकर,
हार गया मन तुम्हें बुलाकर।

धार बनी रहने दो दिल पर,
हथियारों को यूँ बिखराकर,
एक विजय से दम्भ न भरना,
कुछ रखो अभी संग्राम बचाकर,
तुम्हें तुम्हारा जगत मुबारक,
है पूजा तुम्हें भगवान बनाकर,
खुश रहना और रखना सबको,
मेरे गीतों का संसार बनाकर,
यूँ सपनों को फिर सुलाकर,
हार गया मन तुम्हें बुलाकर।

जो मुझको न समझ सका था,
कैसे समझाउँ मैं बात बनाकर,
जब बिना गीरे ही चोट लगी तो,
कैसे आँसू निकालू दर्द बताकर,
आज उसे पराया कैसे कह दूँ,
जिसे अपनाया गले लगाकर,
नहीं नहीं यह भ्रम है मेरा,
कैसे कहूँ मैं सत्य ठुकराकर,
यूँ सपनों को फिर सुलाकर,
हार गया मन तुम्हें बुलाकर।

मन मेरा अब रुदन करता,
आँखो को अब झील बनाकर,
सारे सपने सपने हो गये,
सपनों का संसार बनाकर,
लिखते लिखते कलम रुक गयी,
भावनाओं का हार बनाकर,
जो कल तक हँस कर बोल रहे थे,
आज चले सब मुह घुमाकर,
यूँ सपनों को फिर सुलाकर,
हार गया मन तुम्हें बुलाकर।

सभी पराये दिख रहे जब,
कोई तो अपनाये अपना कहकर,
बने हितैषी मन भीतर से,
नित्य सहज रज अपनी तजकर,
ऐसे भी उन अपनों के कारण,
जीता हूँ यह जग विसराकर,
उन पर आँच न आने दुँगा,
समर्पण करता मैं देह जलाकर,
यूँ सपनों को फिर सुलाकर,
हार गया मन उसे बुलाकर॥
                 ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

जुवेनाईल जस्टिस : एक युवा अभिव्यक्ति

घर में ही गद्दार बहुत है घर में आग लगाने को,
राजनीति खड़ी पड़ी है उनको न्याय दिलाने को।

वहशी दरिन्दों को राजनीति ने इस कदर से पाला है,
डरते नहीं जो न्याय से इसको शर्मशार कर डाला है।
ना जाने कैसे रूप लिये वो आजाद फिजा में घुम रहे है,
डेढ़ सौ करोड़ की आबादी में गलत दहलीजें चुम रहे है।
न्याय की परिभाषा से वो तैयार है आग लगाने को,
राजनीति खड़ी पड़ी है उनको न्याय दिलाने को॥

वोट बैंक की खातिर नेता अन्याय को ही बाँट रहे है,
जाति धर्म कौम एकता में भारत को भी छाँट रहे है।
हम लगे हुये है देश की एकता और न्याय अपनाने में.
और राजनीति लगी हुयी है और आतंक पनपाने में।
अब न्यायिक परिभाषा बदलो रे सच से सच दिखाने को,
घर में ही गद्दार बहुत है घर में आग लगाने को॥

एक प्रश्न मैं पुछ रहा हुँ राजनीति के लालों से,
क्या उम्र मायने रखती है कौम में दहशत फैलाने को।
दरिन्दे तो खड़े पड़े है एक तरफ दहशतगर्दी मचाने को,
और तुम लगे हुये हो वोट बैंक और उनको आजाद कराने को।
घर में ही गद्दार बहुत है घर में आग लगाने को,
राजनीति खड़ी पड़ी है उनको न्याय दिलाने को।

बहूत हुआ यह प्यारवाद न्याय नहीं अपराधी बचाने को,
सच से सच का करो सामन फिजा की लाज बचाने को।
न्यायिक परिभाषा बदलो, है उम्र नही अपराध बताने को,
कुछ ऐसा करो की स्वप्न भारत हो अमन फिजा दिखाने को।
घर में ही गद्दार बहुत है घर में आग लगाने को,
राजनीति खड़ी न हो अब उनको न्याय दिलाने को।
राजनीति न अब खड़ी हो उनको न्याय दिलाने को,
गर खड़ी हो अब से तो रास्ता दिखाये बस तिहाड़ जाने को॥
                                                 ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

ख्वाब : भोजपूरी

साथी जब आहट होखे तब ख्वाब देखीं,
जिनगी में सिमटल सारा जहान देखी।

सालो साल रंगल बा जिनगी के रंग में,
देखे के अब एह रंगन के मिशाल देखीं।
कुछ भुलल भटकल याद में फिर से,
अपना जिनगी के कुछ आसार देखीं।
एह किराया के जिनगीं में अब फिर,
दू पल अपना जिनगी के बितान देखीं।
जिनगी के कागज हमेशा कोरे रही,
असल जिनगीं के तनी पहचान देखीं।
जब आहट होखे तब ख्वाब देखीं,
जिनगी में सिमटल सारा जहान देखी॥

रिस्तन के तह में धूल जम गईल साथी,
अब रिस्ता के दाग धुल मिटाय देखीं।
असली नकली के लड़ाई त चलते रही,
सही गलत में अब अन्तर हजार देखीं।
"अतुल" धड़कते रहिहन वक्त लम्हा बन,
हर सांस में आपन नाम पहचान देखीं।
जब आहट होखे तब ख्वाब देखीं,
जिनगी में सिमटल सारा जहान देखी॥

खामोशी त गुनगुनईते रही सपना में,
तनी बहकत सातों सुर के तान देखीं।
महकत इरादा और ए तड़पते वादा के,
ख्वाहिश के बँधल पट्टी हटाय देखी। 
भले केहू के हुनर चोरी इरादा नेक होखे,
धोखा देबे के बा त धोखा तनी खाय देखी।
अगर जले के मन बा सूरज जश ए साथी,
त पहिले एगो त दिया खुदे जलाय देखी।
जब जब आहट होखे तब तब ख्वाब देखीं,
अपना जिनगी में सिमटल सारा जहान देखी॥

जे कुछ भी चलत रहेला मन के दरिया में,
हमरा भाषा में हरदम ओकर उबाल देखीं।
एह दुनियाँ में त सब कुछ छुपावल जाता,
देखे बा त सच्चाई के शीशा लगाय देखीं।
कहला और कईला में त बहूत फर्क होला,
पहिले दिल के उलझन त मिटाय देखीं।
विरासत में हमरा के कूछ मिलल नईखें,
आँसू गम नमीं से सँजल हमार जहा देखीं।
ए साथी जब आहट होखे तब ख्वाब देखीं,
अपना जिनगी में सिमटल सारा जहान देखी॥
                               ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

वो रात सुहानी बीत गयी

वो रात सुहानी बीत गयी,
तारों की महफिल छुट गयी।
जो जुगुनु बन साथ चली थी,
वो रात भी अब तो रूठ गयी।
जिन सकरी गलियों में मैनें,
चलना ढलना सीखा था।
उन गलियों के सपनों की,
मधुर मलय की यादें लुट गयी।
रिमझीम रिमझीम बरसातों में,
जो जगमग करती रातें थी।
उन सपनों की सारी बातें,
सब बारीश संग धुल गयी।
नमी पाकर कुछ पुष्प उगे थे,
उन पुष्पों की किसलय फूट गयी।
कलीं पुष्प की सारी खुश्बू,
अहसासो में ही लुट गयी।
अब रोने धोने से क्या होगा,
जो बीत गयी वो रीत गयी।
प्राची अब रे मुस्काती है,
पिछली रात भी छूट गयी।
इकट्ठा कर बीतीं बातों को,
आहो पनाहों की अब रूत गयी।
है दोपहरी अब रेत चमकती,
उसमें भी मौजूदगी छूट गयी।
एक दीप जलाया मन मंदिर में,
उसकी भी बाती अब रूठ गयी।
घने अन्धेरों को खिसकाने की,
चाहत मन को लूट गयी।
काँट बधे कोमल पग ने,
अब विवशता का रूप लिया।
देखो नींद भी मुझे सुलाकर,
एक बार फिर जीत गयी।
वो रात सुहानी बीत गयी,
तारों की महफिल छूट गयी॥
             ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

चढ़ पहाड़ के उच्च शिखर

चढ़ पहाड़ के उच्च शिखर पर,
जिसने भी ललकारा है।
सच कहता हूँ दुनिया वालों,
उसके पतन का यह नारा है॥

जिसके सीने में विजयश्री की,
हरदम जलती ज्वाला है।
वन्दे मातरम इन्कालाब की,
उठती हरपल जयकारा है।
चढ़ पहाड़ के उच्च शिखर पर,
जिसने भी ललकारा है।
सच कहता हूँ दुनिया वालों,
उसके पतन का यह नारा है।

बढ़ते चलो काँटों के राही,
हिन्द शेरों की पुकारा है।
न झुकने वालों वीरों को,
भारत माँ ने ऐसे सँवारा है।
चढ़ पहाड़ के उच्च शिखर पर,
जिसने भी ललकारा है।
सच कहता हूँ दुनिया वालों,
उसके पतन का यह नारा है।

कुरूक्षेत्र सरहद पार बनेगा,
भारत का विश्वास हमारा है।
जन गण मन अधिनायक में,
कहता काबूल कान्धार हमारा है।
चढ़ पहाड़ के उच्च शिखर पर,
जिसने भी ललकारा है।
सच कहता हूँ दुनिया वालों,
उसने अपने मौत को पुकारा है।

खत्म करो आतंकवाद को,
ऐसा जारी फरमान बेचारा है।
सरहद के वीरों ने तब तक,
भुख प्यास को दुत्कारा है।
चढ़ पहाड़ के उच्च शिखर पर,
जिसने भी ललकारा है।
सच कहता हूँ दुनिया वालों,
उसके पतन का यह नारा है॥

राष्ट्र भक्तों ने हरदम देखों,
भेद-भाव जाति-पाति के नकारा है।
राष्ट्रभक्ति राष्ट्र प्रेम का जिनको,
गीत गान ही प्यारा है।
चढ़ पहाड़ के उच्च शिखर पर,
जिसने भी ललकारा है।
सच कहता हूँ दुनिया वालों,
उसके पतन का यह नारा है॥
                 ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

प्रेम निपुण है ज्ञान कुशल

जिसके सुरीलें रागों में तितली,
अपना भी राग मिलाती है,
जिसके सम्मोहन की आँधी में,
पलकें भी स्थिर हो जाती है,
वो प्रेम निपुण है ज्ञान कुशल,
नित काव्य गंग में लहराती है।

यादों के उर उमंग बीच जिसकी,
नैन व्याकुलता दिख जाती है,
जिसके लिये अश्रु वर्षा में,
यादों की दिया जल जाती है,
वो प्रेम निपुण है ज्ञान कुशल,
नित काव्य गंग में लहराती है।

जब नवल मकरन्द मिलते है,
तब कलिका मुस्काती है,
उपवन उपवन कलीं कलीं,
अब खुश्बू जिसे बुलाती है,
वो प्रेम निपुण है ज्ञान कुशल,
नित काव्य गंग में लहराती है।

चंचल मगन मस्त पुरवईया,
अब संदेशा जिसका लाती है,
जो यादों की अमराई में हरद्म,
धुँधली परछाई बन जाती है,
वो प्रेम निपुण है ज्ञान कुशल,
नित काव्य गंग में लहराती है।

जो ठहरे बिखरे जीवन में,
अमिट निशानी बन जाती है,
निर्मल मन प्रेम पराधिन हो,
हर सम्बोधन मन भा जाती है,
वो प्रेम निपुण है ज्ञान कुशल,
नित काव्य गंग में लहराती है।

घोर तिमीर में दीप किरण बन,
जो खुद हमेशा जल जाती है,
मन मंदिर में अन्तर्मन को,
गीतों से सदा सजाती है,
वो प्रेम निपुण है ज्ञान कुशल,
नित काव्य गंग में लहराती है।

ना जाने कितना सफर कटा,
ना जाने कितना अभी बाकी है,
"अतुल" के गणित विचार की,
जो अविरल चिता जलाती है.
वो प्रेम निपुण है ज्ञान कुशल,
नित काव्य गंग में लहराती है।
           ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

लड़ी आँसुओं की..

जो लड़ी आँसुओं की दिल में दाखिल ना हुयी थी,
वो घड़ी आँसुओं के कातिलों को हासिल ना हुयी थी॥

मैं न जाना किस तरह से आँधियाँ वहाँ पर आ गयी थी,
दिल के दरिया में आज तो लहरें भी गोता खा गयी थी,
यादों की भँवर में एक धुँधली छवि फिर छा गयी थी,
मुड़ कर देखा दिल में अपने वो कहर बरपा गयी थी,
जो लड़ी आँसुओं की दिल में दाखिल ना हुयी थी,
वो घड़ी आँसुओं के कातिलों को हासिल ना हुयी थी॥

जिन आँखों में कभी हौसलें पर हौसलें ही पल रहे थे,
उस वक्त की दरिन्दगीं में उन्मादी दिये जल रहे थे,
नयी पीढ़ियों के बहादूर जब नये सपन ही गढ़ रहे थे,
तब उन आखों की अदावत कर हिमाकत सो गयी थी,
जो लड़ी आँसुओं की दिल में दाखिल ना हुयी थी,
वो घड़ी आँसुओं के कातिलों को हासिल ना हुयी थी॥

आँख से गिरते ही आँसू कुछ ना कुछ जब पुछते थे,
खुशियों के बौर भी तब दिल को ना ही रूचते थे,
बेसमय आकर ही मेरे दिल का पट खटखटा गयी थी,
यादों की अमराई काँट बन जिन्दगी में छा गयी थी,
जो लड़ी आँसुओं की दिल में दाखिल ना हुयी थी,
वो घड़ी आँसुओं के कातिलों को हासिल ना हुयी थी॥

वो धुँधली छवि फिर से काँटे पिरोकर ला रही थी, 
जो समय के इस चाल में जिन्दगीं उलझा रही थी,
जब सुख दुख की किरण होली दिवाली मना रही थी,
तब धीरे धीरे मेरी जिन्दगीं जहाँ को छोड़ जा रही थी,
जो लड़ी आँसुओं की दिल में दाखिल ना हुयी थी,
वो घड़ी आँसुओं के कातिलों को हासिल ना हुयी थी॥
                                        ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

खिल गयी है राह की कलीं

यूँ लगा कि खिल गयी है राह की कलीं,
जो हल्दियों की गाँठ तुमको सौपने चलीं।

घर सुना सुना सा है सुना मैं यार की,
उदासियों में जी रहा सजा है प्यार की,
अकेले तेरा बैठना आदत है शाम की,
सजा भी ऐसी मिल रही है किस गुनाह की,
यूँ लगा कि खिल गयी है राह की कलीं,
जो हल्दियों की गाँठ तुमको सौंपने चलीं।

महफिलें सजाता है वो अब भी याद की,
बुलाता है अभी भी तुझे कसम यार की,
तकलीफ है मुझे हकीकत कह ना पाने की,
बात रुक जातीं है अधर पर आकर लबों की,
यूँ लगा कि खिल गयी है राह की कलीं,
जो हल्दियों की गाँठ तुमको सौपने चलीं।

रहनुमाई कर ले दोस्त वहाँ तक जाने की,
जो मौका बन रहा आँसू ढह न जाने की,
दरियाँ तो नहीं हूँ मै सागर मिलाने की,
दिल का दर्द है यही बस सह न पाने की,
यूँ लगा कि खिल गयी है राह की कलीं,
जो हल्दियों की गाँठ तुमको सौपने चलीं।

गोरियाँ तो कर गयी शरारतें है गाँव की,
अंजूरी पर अंजूरी धरे व्यथा विचार की,
तुम्हारे द्वार पर खड़ा लिये कथा मैं हार की,
तिमिर बेला है बनो तुम चाँदनी ही चाँद की,
यूँ लगा कि खिल गयी है राह की कलीं,
जो हल्दियों की गाँठ तुमको सौपने चलीं।

लौंट करके है न आयी वो रजा विचार की,
दहलिजें पार कर गयी है वो बेवफाई की,
अब करो तुम कोशिशें उसे भुलाने की,
दुआ है माँगता "अतुल" तेरे ही जीत की,
यूँ लगा कि खिल गयी है राह की कलीं,
जो हल्दियों की गाँठ तुमको सौपने चलीं।
                       ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

नया साल आया

जिन्दगी में आज फिर एक मुकाम आया,
हमारी उम्मीदें जगाने नया साल आया॥

फिर से दिल की खुशियाँ दर्शाने को,
लोगों के उमंग में नाचने नचाने को,
होली दिवाली एक बार फिर मनाने को,
ईंद बकरीद लाया मिलने मिलाने को,
दशहरा लोगों को फिर से हर्शाने को,
जिन्दगी में आज फिर एक मुकाम आया,
हमारी जिन्दगीं में फिर नया साल आया॥

कुछ फिर से नये पावन काज कराने को,
कुछ को बन्धन में बधने और बधाने को,
नये रिस्ते बनाने और पुराने को निभाने को,
रिस्तों में पड़ी दरारों को फिर से मिटाने को,
एकता का पाठ दुबारा फिर से पढ़ाने को.
जिन्दगी में आज फिर एक मुकाम आया,
सहज रिस्तों को बताने नया साल आया॥

पुरानी गलतियों को फिर से भुलने भुलाने को,
नया रास्ता और खुद की मंजिल बनाने को,
दुख से लड़ने  को और हौसला उपजाने को,
सुख के पलों को एक बार फिर सजाने को,
सुख दुख में समानता के भाव दर्शाने को,
जिन्दगी में आज फिर एक मुकाम आया,
हमें फिर से गले लगाने नया साल आया॥

कुछ नये लोगों से फिर  मिलने मिलाने को,
कुछ नये साथियों संग समय बिताने को,
कुछ नये लोगो से तजुर्बें सिखने सिखाने को,
कुछ पल अपनों के साथ फिर से बिताने को.
छोटों को प्यार बड़ो से विनय दिखाने को,
जिन्दगी में आज फिर एक मुकाम आया,
फिर से धड़कन धड़काने नया साल आया॥

गीत गजल फिर से सुनने और सुनाने को,
जीवन गान फिर से गाने और गुनगुनाने को,
जीवन में उतार चढ़ाव फिर से दिखाने को,
हर गलतियों का सबब सिखने सिखाने को,
उजड़ा चमन एक बार फिर से बसाने को,
जिन्दगी में आज फिर एक मुकाम आया,
उत्सव उपहार लिये फिर नया साल आया॥

आशा निराशा एक बार फिर दिखाने को,
जीत हार की परिभाषा फिर से समझाने को,
हास परिहास की भाषा का आभास कराने को,
दिन रात कि नियमितता फिर से समझाने को,
प्रेम करूणा नेह का आभास फिर से कराने को,
हौसलों का पंख एक बार फिर से लगाने को,
जिन्दगी में आज फिर एक मुकाम आया,
लिखने फिर इतिहास देखो नया साल आया॥

सुर्य का तेज और तारों की चमक दिखाने को,
चाँद गगन अम्बर का विश्वास दिलाने को,
ग्रह गोचर की दशा एक बार फिर दर्शाने को,
जिन्दा को जिन्दा अहसास फिर से कराने को,
अधियारी रातों में दीप-ज्योति फिर जलाने को,
"अतुल" की कागज कलम स्याह बन जाने को,
जिन्दगी में आज फिर एक मुकाम आया,
आज नया साल नया साल नया साल आया॥
                           ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"