हर तरफ मंजिल ही मंजिल


हर तरफ मंजिल ही मंजिल,

दिल्ली के गलियारों में।
कही छुप गया अस्तित्व हमारा,
सियासत के अधियारों में।
घिर गये है हम सभी अब,
चारों तरफ दिवारों में।
कोई खेवनहार बनों अब,
जान ला दो पतवारों में।
लड़ रहे है हम अपनों में,
कुछ रखा नहीं विचारों में।
एक सुरज उगा दो यारों,
कुछ शेष नहीं लश्कारों में।
अब आग-शोला बन चलना है,
चारों तरफ अंगारों में।
हर दिन अब फूल खिलेगा,
चारों तरफ बहारों में।
बनना है तो मिशाल बनों,
कुछ रखा नहीं हथियारों में।
एक दिप अब अलग बनेगें,
जैसे चाँद सितारों में।
हर तरफ मंजिल ही मंजिल,
दिल्ली के गलियारों में।
कही छुप गया अस्तित्व हमारा,
सियासत के अधियारों में।

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