ग़ज़ल : हमें ही निशाना बनाने लगें हैं

हमें ही निशाना बनाने लगें हैं,
हमें ही शिकारी बताने लगें हैं।

हुनर कस रहें हैं कसौटी पे' जो भी,
बहुत याद मुझको वो आने लगें हैं।

दिली शुक्रिया मैं उन्हें दे रहा हूँ,
मुझे जो भी' हीरा बताने लगें हैं।

परिन्दों सा' पर है नया सा नशा है,
मगर पाँव बाँधें उड़ाने लगें हैं।

फ़लक तक पहुँचना रहा मेरा' मक़सद,
मुझे ही निशाना बनाने लगें हैं।

कहीं काट डाले गये पर हमारे,
कहीं हौसला वो गिराने लगें हैं।

बड़े प्यार से तो शिखर को छुआ था,
शिखर से अतुल अब हटाने लगें है।।

                       ©अतुल कुमार यादव

कविता : काठ का पुतला

कुछ दर्द है दबा हुआ
जो कुछ देर के लिए
बाहर आना चाहता है,
सीने के दरवाजे को
धीरे से खोलता है
बाहर को झांकता है,
चोर नज़र से कभी
दायें देखता है तो
कभी बायें देखता है
कभी ऊपर नीचे तो
कभी आगे पीछे...।
फिर चुपके से
पार करना चाहता है
उस दहलीज को
जो उसे कैद कर के
रखे हुए है।
कभी कभी उस कैद से
बाहर निकल जाता है
पर दहलीज़ के बाहर
कदम रखते ही
उसे बयां होने को
न तो शब्द मिलता है
और न तो भावनाएँ,
न तो आधार मिलता है
और न ही आयाम।
हार जाता है खुद से
और टूट के रह जाता है
खुद अपने-आप में।
मन मसोसकर
अपने बढ़े हुये कदम
पीछे खींच लेता है और
फिर उन्हीं चहरदिवारी में
जा कर कैद हो जाता है
जहाँ से बाहर आकर
आज़ाद फ़िजाओं की
यात्रा करना चाहता था,
यात्रा करना तो दूर..
शायद उसे अब ये
आज़ाद फ़िजाओं ही
कैदखाना लगने लगी थी,
पागल कुत्ते की तरह
काटने लगती है..
इसलिए वो वापस अपनी
उसी दुनियाँ में लौट कर
खुद को आज़ाद समझता है
और फिर उसी पुरानी
दर्द की पीड़ा में
घुट घुट कर जीता है
घुट घुट कर मरता है
और ज़िन्दगी के मुहाने पर
रख देता है वक्त की मार।
कुछ दर्द की यातना,
और बना देता है मनुष्य को
एक काठ का पुतला।।

      ©अतुल कुमार यादव

ग़ज़ल : बज़्म-ए-अहबाब के कुछ यूँ फ़साना हो गयें हैं

बज़्म-ए-अहबाब के कुछ यूँ फ़साना हो गयें हैं,
आज ख़ुद के पास बैठे हम ज़माना हो गयें हैं।

इश्क़-ए-जज्बात सारे ग़मज़दा है इस तरह से,
जिस तरह ख़ामोश होकर खुद निशाना हो गयें हैं।

ख़्वाब भी झड़ने लगे हैं बाजुओं को छोड़ के अब,
फूल जैसे डालियों से अब रवाना हो गयें हैं।

चल रहे हैं साथ मेरे गर नज़ारे आप बन के,
सच कहूँ तो आप जीने का बहाना हो गयें हैं।

जी बहलता है अतुल का आपकी ही महफिलों में,
क़ाफ़िला ग़म का हमारे अब फ़साना हो गयें हैं।।

                                          ©अतुल कुमार यादव

चिड़िया

कभी पेड़ पर बैठी चिड़िया मुझको धीरज देती है।
कभी सुनाकर गीतों को मन की पीड़ा हर लेती है।।


कभी उसे मैं चुग्गा देता,
कभी उसे मैं सहलाता हूँ।
कभी कभी मैं व्याकुल होकर,
उसे ढूढ़ने लग जाता हूँ।
अद्भुत उसका सम्मोहन है,
अन्तर-मन को छू लेता है।
तूफानों से उसका लड़ना,
मुझको साहस दे देता है।
फुदक फुदक कर चलती है तो साहस मन भर देती है।
कभी सुनाकर गीतों को मन की पीड़ा हर लेती है।।


तिनका-तिनका चुन कर लाती,
सुन्दर सा है नीड़ बनाती।
उसी नीड़ में बैठी चिड़िया,
सही कहानी हमें सुनाती।
देख सून कर उसकी बातें,
मैं खुद विह्वल हो जाता हूँ,
उसके सपने उसकी हिम्मत,
देख सदा मैं चल पाता हूँ।
उसको पंखों की ताकत अब मुझको हिम्मत देती है।
कभी सुनाकर गीतों को मन की पीड़ा हर लेती है।।


पतझड़ में पत्ते गिर जाते,
पेड़ों की टहनी दिखती है।
उस टहनी पर देख घरौंदा,
मेरे मन पीड़ा उठती है।
घर उसका ना बिछड़े उससे,
कुछ सपने पलने लगतें हैं।
उस चिड़िया के लिए आँख से,
आँसू तक झरने लगतें हैं।
आखों के आँसू की धारा मन को घायल कर देती है।
कभी सुनाकर गीतों को मन की पीड़ा हर लेती है।।


सतरंगी अतरंगी जीवन,
पतझड़ बनकर आता जाता।
चिड़ियों के मन को छूकर ही,
अक्सर नीर नयन बरसाता।
धानी-धानी चूनर लेकर,
अगला पल है मन हरषाता।
पेड़ पात पर नजर पड़ी तो,
छोटा बच्चा उधम मचाता।
देख नीड़ में छोटा बच्चा चिड़ियाँ खुश हो लेती है।
कभी पेड़ पर बैठी चिड़िया मुझको धीरज देती है।।

                                              ©अतुल कुमार यादव

ग़ज़ल : पन्ना

यही साहिल यही कश्ती यही पतवार है पन्ना​,​​
​​​किताबों के समन्दर का यही मझधार है पन्ना​।​​

​​बुजुर्गों की दुआओं से बचे हैं हम बलाओं से,​​​
​​​विरासत में मिला हमको यही संसार है पन्ना​।​​

​सलामत ऐ खुदा रखना हमारी लेखनी को तुम
​हमारे गीत ग़ज़लों का यही सत्कार है पन्ना​।

लगा दे आग पानी में मचलती जिन्दगानी में,
जला दे घर किसी का तो यही बेकार है पन्ना।

बहुत आसान करना है किनारा अब गरीबों से,
बना अब मजहबों खातिर यही दीवार है पन्ना।

सिखा दे प्यार से रहना मिलाकर एक दूजे को,
कहूँगा मैं हमेशा फिर यही स्वीकार है पन्ना।।

                                      ©अतुल कुमार यादव

ग़ज़ल : हमारी रहगुज़र जब भी हमें रस्ता बतातीं हैं

हमारी रहगुज़र जब भी हमें रस्ता बतातीं हैं,
जहाँ की ठोकरें ही तब हमें मंज़िल दिखातीं हैं।

समय के साथ चलने की सजायें मिल गयी हमको,
सफर की मुश्किलें तो अब हमें ऊपर उठातीं हैं।

मुरादें और फरियादें कभी पूरा नहीं होतीं,
दुआयें आजकल तो मंदिरों में भाव खातीं हैं।

यहाँ इंसान सच्चे हैं सुनो दुनिया फरेबी है,
यही सच बात है लेकिन समझ मुश्किल से आतीं हैं।

नहीं है राम मंदिर में नहीं रहमान मस्जिद में,
हमारी भावनाएँ मुर्तियों से हार जातीं हैं।

नहीं हिन्दू नहीं मुस्लिम नहीं मैं सिक्ख ईसाई,
सियासी कुर्सियाँ तो जातियों में बाँट खातीं हैं।

नवाबीपन लिये सुन ले अतुल इक बात मेरी भी,
अभावों में सफर की ठोकरें जीना सिखातीं हैं।।
                                          ©अतुल कुमार यादव

नाक में दम

        मई जून का महिना था। सूरज प्रतिदिन सिर पर तेज किरणों के साथ मडराता था। जिससे गरमी इतनी बढ़ गयी थी कि लोगों से बरदास्त ही नहीं हो रही थी। हर कोई पसीने से तर-ब-तर मिलता था। काम करना भी दुश्वार हो गया था। यहां तक कि गर्मी से धरती भी परेशान हो गयी थी। बारिश के आसार दूर तक नजर नहीं आ रहे थे। जहां से देखो वही से विषैले साँप निकल रहे थे। चुहे घर में दौड़ लगाते, भागते और जो मिलता कुतरते रहते थे मानो वो भी गर्मी से बेहाल अपना गुस्सा उतार रहे हो। कुत्ते-बिल्लियाँ भी कम नहीं, घर तो छोड़िये पूरे मुहल्ले के नाक में दम कर दिया था। उस गर्मी में सुविधायुक्त घरों के लोग घर में रहना ही उचित समझ रहे थे।।
           कुछ दिन बाद तीन दिन तक रूक रूक कर बारिश होती रही। सुख रहे पेड़ पौधों में हरियाली फिर से दिखने लगी। सभी चैन की नींद सोने लगे। एक दिन गीत गाती कोयल आम की शाखा पर बैठे तोते से बोली : जब गर्मी थी तब भी इंसान घर में ही बैठा था और अब जब मौसम इतना सुहाना हो गया, फिर भी घर में ही बैठा है। क्या इतने सुहाने मौसम के मजे भी नहीं ले सकता क्या?? अमरूद की डाल पर बैठा तोता सुन कर भावुक हो गया और जवाब दिया। कोयल बहन ऐसी बात नहीं है, मानव आज हर सुविधा घर में कैद कर रखा है। वो जब चाहे तब जिस मौसम का चाहे उस मौसम के मजे ले सकता है।। फिर कोयल बोली : फिर हमारा तो दुर्भाग्य है कि हम मानव नहीं हुए। तोता जवाब दिया : नहीं, यह हमारा सौभाग्य है कि हम मानव नहीं हुए। मानव होते तो हम आज सुविधाओं के गुलाम होते। शुक्र है कि हम आजाद है। जहां चाहे जा सकते है जहां चाहे बैठ सकते है।। पर मानव नहीं। मानव को आज बाहर कपड़े खराब होने का डर, बिमार होने का डर, जाति-धर्म-मजहब आदि का डर और तरह तरह की असुविधायें नजर आती है। इतना सुनते ही कोयल बोली अच्छा हुआ जो ईश्वर ने हमें पंक्षी बनाया। आज तो मानव खुद ही खुद के नाक में दम कर रखा है।

                                                    ©अतुल कुमार यादव

माँ की तकलीफ

     माँ! परी ने फैसला कर लिया है वो आपके साथ नहीं रहेगी। बेटा झल्लाते हुए बोला।
     माँ ने सिर उठाया और आश्चर्य भरे अंदाज मे धीरे से कहा- क्यों? क्या हो गया बेटा? मेरी कोई बात बूरी लग गयी क्या?
     बात बुरी लगे या ना लगे, कह दिया वो आपके साथ नहीं रहेगी तो बस नहीं रहेगी। पुन: झल्लाते हुए बेटा बोल उठा।
   इस तरह अचानक झल्लाते देख माँ के अन्दर हजारों सागर की लहरें एक साथ उठने लगी। मन के भाव उन लहरों में गोता लेने लगे- जिसकी ख़ुशी के लिए अपनी पूरी जिन्दगी खपा दी, रात को न रात समझी और ना ही दिन को दिन।
बहुत सोच समझ कर माँ ने सकुचाते हुए कहा- तो फिर परी रहेगी कहाँ? अगर उसे मेरे साथ रहने में तकलीफ है तो बेटा तू अपने साथ ही शहर लेता जा। माँ की यह बात सुनते ही- हाँ, हाँ तुमसे यही उम्मीद भी थी, तकलीफ तो तुम्हे है जो तुम उसे घर पर रहने ही नहीं देना चाहती। लेता जाऊँगा साथ। इतना कहते ही प्रतीक वापस परी की ओर मुड़ता है और माँ बड़बड़ाती है- बस यही दिन देखना रह गया था बुढ़ापे में, इसी दिन के लिए पाल पोश कर इतना बड़ा किया था।

                                                                                               ©अतुल कुमार यादव

ढंग का काम

             एक रोज़ किसी ने बोला - अतुल बाबू! कभी बैठिये चार लोगों के बीच में? पता चल जायेगा समाज सेवा क्या होती है? किसी का दर्द क्या होता है? किसी से किसी को खोने का दुख क्या होता है? जाईये शहर में, देखिये उन लोगों को.., जो आठ घंटा से लेकर बारह घंटा सोलह घंटा बीस घंटा काम करते हैं। देखिये उन लोगों के बच्चा पार्टी को, तब न पता चलेगा घर चलाना कितना कठिन काम है। अभी आपके कपार पे बोझा पड़ा नहीं है न..? ये सब नहीं पता चलेगा आपको.. । जब बच्चा पार्टी हो जायेगी तब ये सब पता चल जायेगा। कुछ समझे?? छोड़िये आप, ये सब आपको कभी नहीं पता चलेगा... कभी नहीं मतलब कभी नहीं। बेटा ये सब काफिया रदीफ नहीं है! जिसमें रिश्ता बना लेने से काम चल जायेगा...। ये जिन्दगी के काफिया रदीफ हैं.! इसमें केवल दिमाग ही नहीं अपितु दिल दिमाग तन मन धन सब लगाना पड़ता है तब जाकर बात बनती है। पता चला कुछ! अरे बाबू हँसने से काम नहीं चलेगा!! कुछ ढंग का काम कर लो..ढंग का ! अरे सरवन भाई कहाँ गये आप.. चलिए काम पर चलिए.! ये लोग नये जमाने के लड़के हैं! इनकों कुछ समझ नहीं आयेगा। सब समझाना व्यर्थ है इन लोगों को...।
              कसम से बता रहें हैं.. सब कुछ छोड़ के उसी दिन से ढंग का काम खोज रहा हूँ पर पता नहीं ये ढंग का काम होता कौन है।

                            ©अतुल कुमार यादव