दामिनी : शहादत रूप

मरे हुये को जीवित कर गयी,
जीने की कुछ इच्छाये देकर॥

कच्ची कलीं कुचल गयी थी,
आज के दिन बागी बन कर।
जकड़ी गयी ज्योति की ज्योति,
दरिन्दों के चंगुल फँसकर।
मरे हुये को जीवित कर गयी,
जीने की इच्छाये देकर॥

सूरज उगने से पहले सोयी,
आबरू पीड़ा खुद समेटकर।
माँ बाप का आँसू निकलता,
दर्द का कतरा कतरा बनकर।
मरे हुये को जीवित कर गयी,
जीने की कुछ इच्छाये देकर॥

"मुझे जीना है" की धुन निकलती,
आज भी उसकी चीख चीखकर।
आज जिन्दा है वो इस फिजा में,
कहती अब भी कलेजा भींचकर।
मरे हुये को जीवित कर गयी,
जीने की कुछ इच्छाये देकर॥

याद करो निर्भीक बिटियाँ को,
अब हाथों में अखबार लेकर।
रौंद दिया था जिसे जालिमों ने,
खुद पिशाच नरभक्षी बनकर।
मरे हुये को जीवित कर गयी,
जीने की कुछ इच्छाये देकर॥

रिहाई का न्याय दिया न्यायालय,
अपराधी को नाबालिक कहकर।
भारतीय कानून शर्मिन्दा करता,
ऐसे कातिलों को जिन्दा रखकर।
मरे हुये को जीवित कर गयी,
जीने की कुछ इच्छाये देकर॥

न्यायिक पट्टी सरकाया जालिम,
नाबालिक की ठोकर देकर।
मेरे मन की न्यायिक पीड़ा कहती,
शान्ति मिलेगी उसे फाँसी देकर।
मरे हुये को जीवित कर गयी,
जीने की कुछ इच्छाये देकर॥

उस बेटी को न्याय दिलाओ,
कानून अपने हाथ में लेकर।
"निर्भया" कौन थी फिर बता दो,
संसद में बैठों की नींद उड़ाकर।
मरे हुये को जीवित कर गयी,
जीने की कुछ इच्छाये देकर॥

न्याय ने दिल चीर दिया अब,
जख्मों पर जो मरहम रखकर।
मन होता आग लगा दूँ गोलों में,
अत्याचारियों का नाम लिखकर।
मरे हुये को जीवित कर गयी,
जीने की कुछ इच्छाये देकर॥

पराई हुयी उस बिटियाँ की बिदाई,
जनता चली बेवश लाचार होकर।
मिला नहीं है अभी तक न्याय,
न्याय चला नेताओं के झोली सोकर।
मरे हुये को जीवित कर गयी,
जीने की कुछ इच्छाये देकर॥

तात मात आज आप : घनाक्षरी

शब्द शब्द की पुकार एक रात एक बात,
तात मात आज आप चाँद को सँवार दो।

आज गीत गात जात पात पात घाट घाट,
गाँव ठाँव हाव भाव नाव को सँवार दो।

एक एक एक बात आस पास चार धाम,
रीत प्रीत जीत मीत भ्रात को सँवार दो।

देश प्रेम डाल डाल आह वाह चाह राह,
मौन गीत फूँक प्राण गीत को सँवार दो॥
                      ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

कर्ण जैसा दानवीर : घनाक्षरी

कर्ण जैसा दानवीर सत्यवादी हरिश्चन्द,
अर्जुन जैसे पराक्रमी आज भी पड़े हैं।

राम जैसा आज्ञाकारी राणा जैसा देशभक्त,
शिवाजी जैसे क्षत्रिय तो साथ में खड़े हैं।

श्रवण जैसा बालक एकलव्य जैसा शिष्य,
लखन जैसे भाई मेरे देश में पड़े है।

सीता जैसी नारी देखो मीरा सी दिवानी देखो,
हनुमान जैसे सेवक साथ में खड़े है॥
                      ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

जरा सा देख लेना घर : ग़ज़ल

चिरागों से उजाला क्या कभी ऐसे मिला होगा,
तुम्हारी याद से जैसे हमारा दिल जुड़ा होगा।

यहाँ जब रात होती है तुम्हारी याद आती है,
तुम्हारी याद में मूरत बना तुमने सुना होगा।

पिला कर ज़ह्र मीठा प्यार का दफना गयी मुझको,
खुदा इससे बचाये यार अच्छा ही सदा होगा।

अगर कुछ याद हो तो तुम जरा सा देख लेना घर,
तुम्हारे घर के कोने में हमारा खत पड़ा होगा।

कहो किसको सुनाये हम हमारे रंज तकलीफें,
पता है जब हमें शामिल न कोई दूसरा होगा।

तुम्हारे नाम पर जीते चले जाना वफादारी,
वफा में जान देने से भला किसका भला होगा॥
                           ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

कभी कभी अल्फ़ाजों में

कभी कभी अल्फ़ाजों में,
मैं दर्द महसूसता हूँ,
कभी कभी दर्दों में ही,
अल्फ़ाज महसूसता हूँ।

ख्वाहिशों के सभी पन्ने,
थक जाते जब बातें कर,
थम जाती साँसें मेरी,
कुछ अल्फ़ाजों को पाकर।

कुछ अन्जानें छूट गये,
कुछ पहचाने रूठ गये,
कुछ अपने हैं साथ चले,
कुछ अपने भी रूठ गये।

मंजिल तो बस मंजिल है,
शायद खाबों की नगरी,
जज्बातों के साथ चलो,
कहती भावों की नगरी।

कुतर रहे भाव हमारे,
आँखों के सपने हरदम,
आँसू पीड़ा लाचारी,
भरते अब मुझमें दमखम।

सुकूं नहीं मिलता मुझको,
दर्द की भावना पाकर,
लफ़्ज बयां होते जाते,
आँखों में अश्क भर भरकर।

लोगों का ताना बाना,
ख्यालों का आना जाना,
फिर भी सबका हाथ साथ,
रखकर है  साथ निभाना।

जीवन के इस पड़ाव में,
दौर सलामत पता नहीं,
मौन मौन सी रातें हैं,
कब जल जायें पता नहीं॥
              ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

बुझते चिराग

बुझते चिरागों की 
चमकीली लौ,
वक्त बेवक्त मुझको
याद आती है।
दिल हँसता है
रोता है
गाता है
उन पर
जो इबादत में डूबे
पल पल हर पल
फरियाद करते हैं।
कुछ कच्चे सपनें
आँखो में दिनभर
तरसते हैं।
पैरो तले दबे दर्द
हमेशा उकसते हैं
अन्दर की पीड़ा जगती है
फिर उदास होकर
लक्ष्य त्याग कर
दुर्गम पथ पकड़े
नीद की झील में
डूबकी लगाती है।
आज कुछ लोग
ख्वाबों में टहलते हैं
गर्दिशों में रहते हैं,
फिर भी उनकी आँख के आँसू
इस उम्र में, 
यादों की चौखट पर पाँव रखे
तकलीफों में उनकी हकीकत
बयाँ करते हैं।
आज सारे दिल के दरवाजे
लोगों की फितरत बताने के लिए
मुकद्दर की रेखा दिखाने के लिए
और
खुद की दुनिया सजाने के लिए
खुलें हैं।
हो सके तो आप भी
अपने ख्वाबों की नगरी
हकीकत में सजाईये।
मुझे अपने जीवन के
छिछले सागर की चिन्ता
आपसे ज्यादा है,
और वही चिन्ता
आज इन आँखों को
मदहोशी में लपेटे सोने नहीं देती।
                        ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

अतुल के दोहे

भाग दौड़ सी जिन्दगी, अम्ब विमल सी सोच।
भाव दीप बाती बने, तब खुशहाली होत॥१

आओ मिलकर सब करें, काव्य सुधा रस पान।
खुशी देख दीपक जना, उजला सकल जहान॥२

सपनों में बैठे हुये, लिये हुये सब अंग।
प्रेम भाव अलाप रहे , झूठ भजन सत्संग॥३

उलझी नजरें हर तरफ, नहीं बात का अन्त।
चलती रहती है कलम, भाषा भाव अनन्त॥४

सुख सत्ता की चाह में, राजा देते भोज।
बातें सुन कर ज्ञान की, खिलते आज सरोज॥५
                                  ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"
------------------------------------------------------------------------------

ऐ जिन्दगी जरा बता, क्या है तुझमें खास।
आज का कुछ पता नहीं, कल की क्युँ है आस॥६

सुबह सुबह में आज हम, लेकर बैठे चाय।
सर्द गुनगुनी धूप में, मिली मुझे बस राय॥७

उलझन के इस दौर में गायब है मुस्कान।
सुलझाने की आश में, खड़े हो गये कान॥८

जीवन के इस राह में, हुयी कहीं पे चूक।
शाहस खोये हैं सभी, आज खड़े सब मूक॥९
                             ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"
------------------------------------------------------------------------------
 बात बात में यहाँ पर, गुरू देत है ज्ञान।
शिष्य भविष्य की सीढ़ी,  कहताआज विज्ञान॥१०

समय समय से बोलता, गुरू ज्ञान आधार।
शुन्य को अंक बनाना, उसका है अधिकार॥११

गुरू के बिनु ज्ञान नहीं, मानी युग ने बात।
भावुक जीवन जी रहे, काट रहे सब रात॥१२

जीवन खुशियाँ देख कर, करता ह्रदय विचार।
गुरू न होता जो अगर, आता कहाँ निखार॥१३

हँसता फूलों को देख,  भरता है मुस्कान।
जान सपनों में भरके, बनता गुरू महान॥१४

हौसला सीने में लिये, कभी न मानो हार।
कहता रहता गुरू है, है जीवन में धार॥१५

विजित तर्क ही रहा है, गुरू शिष्य का मान।
नैतिक मूल्य सदा जिन्दा, तू इसको पहचान॥१६

माता पिता और गुरू, इस जीवन की राग।
सदा सदा इनके यहाँ, जुड़ते रहते ताग॥१७

जीवन सुख से है भरा, यही बसन्ती बाग।
गुरू सिखाता आज नित, आलस से तू जाग॥१८

नमन गुरू को करूँ मैं, नतमस्तक हो आज।
 प्रभु सम ही तो दिख रहे,  सदा गुरू महराज॥१९
                                         ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

शब्द शब्द की पुकार : घनाक्षरी

शब्द शब्द की पुकार सुन मेरी ये गुहार,
सीमाओं पे खड़े है जो उनको सलाम है।

रात रात चल रहे दिन भर जल रहे,
रात रात जाग जाग कर रहे काम है।

आँधियों से लड़ जाते तुफानों से भीड़ जाते,
दुश्मनों का हर वार करते नाकाम है।

आस कभी तोड़े नहीं साथ कभी छोड़े नहीं,
मेरे हिन्दवासियों का बस यहीं काम है॥
                             ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

ग़ज़ल

दिल का दीपक जलता रहता,
चोट जिगर का सहता रहता।

गीत तराना दिल को भाता,
मुझसे हर पल कहता रहता।

दिल में है जो गम का सागर,
आँसू बनकर बहता रहता।

नफरत चाहत दिल का हिस्सा,
हसरत बनकर चलता रहता।

नजरों में अब नजरें छिपती,
सूरज भी तो ढलता रहता।

अपने दिल के हिस्से में तो,
बस सपना ही पलता रहता।

वो क्या जाने पीर पराई,
अपनी धुन जो रमता रहता।

पल कहता है सब सहता है,
सब चलता है चलता रहता॥
                  ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"

शुन्य : घनाक्षरी

शुन्य है धरती समुची शुन्य ही आकाश है,
क्या हुआ जो मैं नही शुन्य के इतिहास में।

शुन्य ना है अंक कोई भावना का पंक कोई,
शुन्य तो आकार है शुन्य के इतिहास में।

शुन्य ना है भार कोई और ना विकार कोई,
सत्यता ही सत्य है शुन्य के इतिहास में।

शुन्य ना तो राग कोई शुन्य ना वैराग कोई,
शुन्य शुन्य शुन्य है शुन्य के इतिहास मे॥
                       ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"