AATM-CHINTAN

दिल्ली विश्वविद्यालय में 2013 में दाखिला लिया था और अब समय आ गया दिल्ली विश्वविद्यालय से बाहर निकलने का। आज से लगभग दो साल पहले 24 सितम्बर 2015 को पहली बार शहीद भगत सिंह कॉलेज में कविता प्रतियोगिता में शामिल हुआ था। कविता पाठ करने से पहले ही कुछ लोगों के नाम कुछ लोग सुनाने लगे। एक तरफ लोगों के नाम सुनाये जा रहे थे तो दूसरी तरफ मेरे दिमाग में चल रहा था "नाम में क्या रखा है सचिन भी तो एक नाम ही है तो क्या हम क्रिकेट खेलना छोड़ दे? नहीं यार हमें सचिन की मौजूदगी में सेहवाग बनना पड़ेगा।" पता नहीं इस सोच का कितना असर पड़ा जिन्दगी पर, बस तब से सोच थी कि हर मंच पर नई रचना रखूँ। और इसके लिए मुझे रात रात भर जग जग कर हिन्दी साहित्य को बड़े चेहरों को पढ़ना पड़ा। बहुत से लोगों से मुझे बहुत कुछ सिखना भी पड़ा। आज उसकी ही देन है कि 24 सितम्बर के बाद से दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेजों में 93 जगह (कहानी व कविता प्रतियोगिता का) प्रतिभागी बना, 53 जगह(प्रथम-17, द्वितीय-23 व तृतीय- 13) विजेता रहा। सात जगह से सात्वना पुरस्कार मिला। विश्वविद्यालयी प्रतियोगिता का अंत श्री वेंकटेश्वरा कॉलेज पे हो गया। आगे पता नहीं कहाँ तक ये सफर कैसे चलता रहेगा कुछ कह नहीं सकता। इस सुनहरे सफर में जो साथ रहे! जिनसे कुछ सिखने को मिला! जिनसे गुरु जैसा सानिध्य मिला उनमें प्रथम नाम आता आद० गुरुदेव रामबली गुप्ता 'बली' जी का, रामबली गुप्ता जी की छत्रछाया में गीत लिखने का सौभाग्य मिला, गीत लिखता तो हूँ पर कितना कामयाब हूँ पता नहीं। द्वितीय नाम गुरुदेव श्री Ravi Shukla जी का है। रवि शुक्ला सर जब वाणी परिवार में शुरू शुरू में ग़ज़ल सिखाने का काम करते थे तब मुझे कुछ समझ नहीं आता था मैं शान्त हो जाता था कभी कभी खींज जाता था पता नहीं क्या ये मुफाईलुन फाईलातुन की लड़ी लगायें रहतें हैं बहर सानी करते रहते हैं पर ये शुरूआत की बात है, बाद में तो सब कुछ बदल गया, ग़ज़ल लिखने की थोड़ी बहुत कोशिश करने लगा और बहुत डांट भी लगी रवि सर से। लेकिन डॉट के बावजूद भी कभी गुस्सा नहीं आया पता नहीं क्यूँ। सबसे बड़ी बात गुरुजी ने कभी ग़ज़ल बेबहर नहीं लिखने दिया और आज की हालत ये है कि बिना बहर के ग़ज़ल मुझसे लिखी नहीं जाती। कैसी ग़ज़ल लिख पाता हूँ मुझे खुद नहीं पता। चलते है तीसरे नाम की तरफ। तीसरा नाम आता पवन भैया का। पवन भैया कहने के लिए भैया बाकी का काम गुरु जैसा ही है। मुक्तक से लेकर गीत तक सबसे ज्यादा जिनसे सलाह लिया, सबसे ज्यादा जिनसे बहस किया वो नाम है पवन भैया का। कहानी लिखना सिखाने वाले तीन नाम है किसका नाम पहले लिखूँ समझ नहीं आ रहा, तीनों नाम कुछ इस प्रकार है असित कुमार मिस्र (असित भैया) सौरभ चतुर्वेदी (मनेजर बाबू:) ) अतुल कुमार राय (अतुल भैया)। सिखने को बहुत कुछ मिला इन तीनों नामों से पर थोड़ा अलगाव सा लगता है। एक नाम बीच में छूट गया आशुतोष (आशु भैया) आपको कैसे भूल सकता हूँ। आप ही तो थे जो बेबाक समीक्षक है हमारी रचनाओं के। कसौटी पर रचनायें कैसे कसी जाती है कोई आप से सीखे। आपकी भाषा में बोलूँ तो *जीयतार दरद पर नमक रख के कइसे मारते हैं अऊर नमक छोड़िये घाव पर मरहम कईसे लगाते है ये तो आप से सीखना बाकी है।* आशु भैया की शालीनता देखिये समीक्षा करते वक्त ऐसी टिप्पणी करते हैं कि दिल पर लगे और बाद में पूछते हैं बुरा तो नहीं लगा न?? अन्यथा न लीजिएगा। अब सोच रहे होगे कि मै भी दिल पर ले लिया था तो ऐसा कुछ भी नहीं है भैया! न तो अन्यथा लिया और ना ही दिल पर कोई आपकी बात लगी। आपकी सारी बातें दिल में गयी हमेशा कोशिश रही आपको ऐसी रचना दूँ जिस पर आप नकारात्मक टिप्पणी ना कर सके। Umashankar Dwivedi (उमा भैया)Kb Singh(केशर भैया) Satvinder Kumar(सत्तू भैया) का सहयोग और साथ कदम दर कदम है। कुमार सौष्ठव भाई Atul Awasthi भाई Diwakar Dutta Tripathi भैया यानी डाग्डर साहेब Yash भाई आप लोगों की उत्साहवर्धन टिप्पणी कमाल की। बहन Jyoti Tripathi जी आपकी क्या बात करूँ आप तो लगता है मेरे मुक्तकों की ज्योति है। आपकी टिप्पणी के बाद से मुक्तक लिखना कम कर दिया। जब भी मुक्तक लिखने बैठता तो आपकी टिप्पणी याद आ जाती है, दिमाग में एक बात चलने लगती है कि मजाक में मुक्तक नहीं लिखना, कुछ बेहतर मुक्तक लिखना है। Kishan Lal Upadhyayभैया Chhote Lalभैया स्नेहाँशु भैया जनार्दन पाण्डेय(जेपी) सर Manishभैया पिंगलाचार्य निर्दोष भैया राजकुमार भैया प्रवेश भैया रंगनाथ भैया सौजन्य भैया Shivesh भैया Subodhभैया Upendra भैया आप लोगों के स्नेह का बहुत बहुत आभारी हूँ।

अब दूसरी तरफ चलता हूँ। पहले तो DrNikhil Dev Chauhan (निखिल) भैया आपको नमन...। नमन इसलिए क्युकि मुझे नहीं पता कि कोई मेरी रचनायें आप जितना मन से सुनता होगा। मुझे तो फेसबुक अपनी रचनाओं और अपनी फोटोज का डेटाबेस लगता है इसलिए मैं कभी किसी को लाईक कमेंट करने को कहता नहीं हूँ पर आपके दिल से मिले लाईक को नमन करता है। Er Anand Sagar Pandey(अनन्य) भैया आपको क्या कहूँ आप तो दिल में इस तरह बैठे हो कि सारी रचनायें आपसे होने के बाद ही कहीं जा पाती हैं। सुनील भाई और श्री Harendra गुरू जी आप द्वय का हार्दिक आभार। आप द्वय से प्रेरणा मिलती रहती आगे लिखने की, कुछ बेहतर करने की। Purusharth भैया! साहित्य की जानकारी जितनी आपको है उतनी मुझे नहीं है, आपके साहित्य को और आपको एक स्वर में नमन। आप तो हमारी हिम्मत और ताकत सी बन गये हैं। इसका किस तरह से आभार व्यक्त करूँ मेरी समझ से परे है। बाकी साहित्यिक मित्रों में प्रभात Prabhat भाई Mehul भाई Vikram भाई Uzma IshikaVaishnavi कोमलजी Nitika Anuragभाई Shashwatभाई Pavitraभाई Shahbaz Anwarभाई Balmohanभाई Shashankभाई Abbas Qamarभाई कौशलेन्द्रभाई Krishna भाई Mani Dixit कुलभाष्कर भाई Neha Pathak Deepa Yadav Vinod भैया Achyudanand(ऐसी) भैया आप सभी लोगों साथ बने रहने के लिए हार्दिक आभार। आप लोगों से मिले स्नेह और आशीर्वाद का आभारी हूँ।


जय हो।AATM-CHINTAN

रेत पर हम चले तो बदन जल गया

रेत पर हम चले तो बदन जल गया,
धूप बिखरी थी मन में औ मन जल गया,
रेत पर हम चले तो बदन जल गया।

आँख उलझन रही पीड़ा मन में रही,
आँच हल्की हमारे जिगर में रही।
हल्की हल्की ही आँचों से मन जल गया,
मन के अन्दर का सारा भरम जल गया,
जिसको जलना था सारा वहम जल गया,
रेत पर हम चले तो बदन जल गया,
धूप बिखरी थी मन में औ मन जल गया।

झूठ लगते थे रिश्ते सब चुप्पी लिये,
सुख की खेती में थे दुख की झप्पी लिये,
मन के अन्दर जगाये थे पीड़ा के भाव,
सोचा लेकर चलूँ पीड़ा हिम्मत के नाव,
देख हिम्मत का दामन ये मन जल गया,
रेत पर हम चले तो बदन जल गया,
धूप बिखरी थी मन में औ मन जल गया।

बात बनती रही औ बिगड़ती रही,
बात शब्दों में ही ढल के चलती रही,
मानो पानी के कतरे में सागर सलोना,
मिला बच्चों को जैसे हो अपना खिलौना,
बात बच्चों की थी जल खिलौना गया,
रेत पर हम चले तो बदन जल गया,
धूप बिखरी थी मन में औ मन जल गया।

हड़बड़ाए बहुत थे बहुत बड़बड़ाए,
मगर भाव दिल के हम लिख भी न पाए,
मालूम नहीं हमको खुद की ऊँचाई,
कहो कैसे लिख दे मन की तराई,
करूणा लिए मन सुमन जल गया,
रेत पर हम चले तो बदन जल गया,
धूप बिखरी थी मन में औ मन जल गया।
                             ©अतुल कुमार यादव

मुक्तक-2

हाथों में हैं छाले पड़ गये,
खाने को हैं लाले पड़ गये।
निर्धनता लाचारी महँगा'ई,
मजदूरों के पाले पड़ गये।।

हड्डी से पसली तक तोड़ा,
दुश्मन का है गला मरोड़ा।
अब तो भारत के शेरों ने,
नौशेरा में बम है फोड़ा।।

तुम कहो तो सुबह को शाम लिख दूँ,
गुजरता पल तुम्हारे नाम लिख दूँ।
बात होती रहेगी जिन्दगी की,
गर 'जिन्दगी' तुम्हारा धाम लिख दूँ।।

कहानी है हमारी पर कहानी में कहानी है,
घिसेंगे हाथ पत्थर पर कलाई ने ये ठानी है।
कभी रस्ता बनाना खुद कभी चलना अकेले में,
यही मजदूर होने की मेरी सच्ची निशानी है।।

गढ़ते रहे वो कौन सी भाषा जाकर के बाजार में,
हैं चापलुसी से कुर्सी पाये नई नई सरकार में।
खर्चे कैसे कम रखते हैं आज हमें बतलाते है,
जो ए.सी. वाले घर में रहते और घुमते कार में।।

कभी हाथों में शोला है कभी आँखों में पानी है,
समन्दर पार करना है कभी ना हार मानी है।
बड़ी मुश्किल डगर है ये मगर मजदूर है हम भी,
गलाने को अभी पत्थर हमारे दिल ने ठानी है।।

जिसे मैं गुनगुना जाऊँ मिलो वह छन्द होकर तुम,
मिलो रिश्तों की डोरी की कभी गुलकन्द होकर तुम,
तुम्हारी याद के बादल हमारे घर बरसते हैं,
उन्ही बरसात में मिलना जरा मन्द होकर तुम।।

जिसे मैं गुनगुना पाऊँ मिलो वो छन्द होकर तुम,
बिखेरो फूल की खुश्बू मिलो मकरन्द होकर तुम।
नहीं मैं चाहता तुमसे रहो तन्हा हमें खोकर,
बधों रिश्तों की डोरी में मिलो गुलकन्द होकर तुम।।

हवा के साथ चलने का हुनर जिसको पता होगा,
उसी की राह में मंजिल का सिर खुद ही झुका होगा।
न पूछो हद हवाओं से परिन्दों की उड़ानों का,
भला क्या पूछने को अब वही बचपन बचा होगा।

समन्दर पार करना खुद किनारे साथ नहीं देगें,
मुकद्दर से जो बहके तो सहारे साथ नहीं देंगे।
जमाने से नहीं रखना कभी उम्मीद कोई तुम,
सफर इतना ये मुश्किल है नजारे साथ नहीं देंगे।।

ये दरिया है कहाँ रहता समन्दर को पता होगा,
खुदा गर है बसा दिल में तो पत्थर को पता होगा।
समय की साँस में हम तुम चलो अब रंग को घोले,
घुला जो रंग महफिल में तो हर घर को पता होगा।।

खफा होती कभी जो तुम धड़कने रुक सी जाती है,
कदम दो चार चलकर के ये साँसें थम सी जाती है।
यहीं तक था यहीं तक हूँ यहीं तक जिन्दगानी है,
तुम्हारे साथ होने से ये' हिम्मत बढ़ सी जाती है।।

तुम्हारे दिल की मायूसी हमारे दिल पे भारी है,
कई रातें यहाँ हमने तो' अश्कों में गुजारी है।
तुम्हारी प्रीत जिन्दा है मुझे तो याद बस इतना
हमारे मन के मंदिर में बसी मूरत तुम्हारी है।।

तुम्हें पाने की चाहत में तुम्हें ही खो रहा हूँ मैं,
तुम्हारे चाहतों के बीज दिल में बो रहा हूँ मैं।
लिखा जो गीत रो रोक सुनाता अब वही हँसकर,
खुशी मिलने की' है या फिर अभी भी रो रहा हूँ मैं।।

घर का झगड़ा उठकर बाजार तक आ गया,
झूठ का वो माजरा अखबार तक आ गया।
मोम जैसा दिल लेकर फिरता रहा जमाना,
था दिल का मामला औ सरकार तक आ गया।।


कभी दीपक कभी सूरज कभी आलोक हो जाऊँ,
ग़ज़ल गीतों की दुनिया का मैं तीनों लोक हो जाऊँ।
जमाना हो गया खुद से मुझे लड़ते-झगड़ते ही,
सुलह करके मुकद्दर से मैं कोई श्लोक हो जाऊँ।।
                                                ©अतुल कुमार यादव

ग़ज़ल : रात होती रही चाँद सोता रहा

रात होती रही चाँद सोता रहा,
ख्वाब की एक दुनिया सँजोता रहा।

हासिये पर चला औ छला हर घड़ी,
चाँद खुद ही दगाबाज होता रहा।

हौसलों की जो' बारिश हुयी रात थी,
मन निराशा लिये चाँद खोता रहा।

रागिनी में मधुर तान छेड़ों न अब,
रूप श्रृंगार का जुल्म ढोता रहा।

चाँदनी रात में बात ही बात में,
प्यार का फैसला रात होता रहा।

प्यार था ही नहीं ख्वाब ही ख्वाब था,
जिन्दगी की हकीकत पिरोता रहा।

साजिशों से फँसा रात की घात में,
हाल बेहाल किस्मत का' होता रहा।
                         ©अतुल कुमार यादव

उम्मीदों का सूरज था मैं

उम्मीदों का सूरज था मैं,
दीपक बनकर जूझ रहा हूँ।
मैं पतवार लिये हाथों में,
तटबन्धों को ढूढ़ रहा हूँ।

उलझी सुलझी तकदीरों में,
दौलत की इन जंजीरों में।
चाहत का दरिया फैला है,
सबका आँचल कुछ मैला है।
मैले आँचल की बात रहेगी,
मगर प्रीत की नाव बहेगी,
उसी नाव पर चढ़ कर अब तो,
अपनेपन से जूझ रहा हूँ।
मैं पतवार लिये हाथों में,
तटबन्धों को ढूढ़ रहा हूँ।

मौसम तो आते जाते हैं,
हर पल लोग बदल जाते हैं,
जो बदले ना मौसम जैसे,
उनको सदा सरल पाते हैं।
जिनको सदा सरल पाते हैं,
मन की बातें कह जाते हैं।
मन की बातें कहते कहते,
मन ही मन से जूझ रहा हूँ।
मैं पतवार लिये हाथों में,
तटबन्धों को ढूढ़ रहा हूँ।

तन के जख्मों को अब सीकर,
मन के कोलाहल को पीकर,
कर्मयोग को गढ़ते गढ़ते,
लीलाओं को पढ़ते पढ़ते,
अनजानी यादें घिर आती,
बचपन में हमको ले जाती,
गुल्ली डंडे कंचों में अब,
अपना बचपन ढूढ़ रहा हूँ।
मैं पतवार लिये हाथों में,
तटबन्धों को ढूढ़ रहा हूँ।

चमकेगी अब मेहनत मेरी,
है लिपटी खून पसीने में।
कहो उजाला फिर क्या भरना,
क्या तम है अब भी जीने में।
तम की बातें करते करते,
रातें बीती सोते जगते।
काली काली उन रातों में,
मैं ही तो इक मूढ़ रहा हूँ।
मैं पतवार लिये हाथों में,
तटबन्धों को ढूढ़ रहा हूँ।

उम्मीदों का सूरज था मैं,
दीपक बनकर जूझ रहा हूँ।
दीपक बनकर जूझ रहा हूँ,
खुद ही खुद को ढूँढ रहा हूँ।।
          ©अतुल कुमार यादव

आज लिखते लिखते इक ग़ज़ल

आज लिखते लिखते इक ग़ज़ल
क्यूँ नयन मेरे अब हो गये सजल।

आँसू पीड़ा दिल में तो था ही नहीं,
फिर क्यूँ? क्यूँ देख सभी गये दहल।

मेरे दिल की बस्ती तो विरान है अभी
तो बेहिजाब रहने लगा कौन इस-पल

यकीनन नींव जिसने रखीं थी ख्वाबों में,
अब वही कहे कैसी है आगे की पहल।

घर बनाने की बात तो सिर्फ बातों में थी,
दुआओं से देखो बना है ये कैसा महल।

जब हर लम्हा तेरे नाम किया 'अतुल'
तब जाकर मुकम्मल है शहर-ए-ग़ज़ल।
                               ©अतुल कुमार यादव

आँसू घुटन दर्द ख्वाब सब याद हैं

आँसू घुटन दर्द ख्वाब सब याद हैं,
दौलत दुआ दृष्टि दया आबाद हैं।

शिद्दत शोर शान शहर की बात तो,
सपनों की सदाओं में बर्बाद हैं।

चाँद चेहरा चाहत वक्त के संग,
पर इशारे जुगनूओं के बाद हैं।

हाल-चाल हवाला हालात के, पर,
समन्दर सफीना समय आजाद हैं।

पर परिन्दे पिंजरे पैबन्द अब तक,
मजहब मतलब मतलब के औलाद हैं।

इश्क़ ईनाम ईनायत सब अफसाना
अफसोस अतुल जख्म-ए-दिल याद हैं।।
                               ©अतुल कुमार यादव.

जिन्दगी में खैरियत का

जिन्दगी में खैरियत का सिलसिला कुछ भी नहीं,
हम उसूलों पर चलें हैं सिरफिरा कुछ भी नहीं।

वक्त की पाबन्दियों में चल रहा मैं रात दिन,
दरबदर हूँ मैं भटकता माजरा कुछ भी नहीं।

हर घड़ी है याद रखनी बस बड़ों की बात को,
ज्ञान की इन वादियों का दायरा कुछ भी नहीं।

हर तरफ अंधेर है यह रौशनी को क्या पता?
इक जलाना दीप मुझको मशवरा कुछ भी नहीं।

हसरतों को तुम लिए दिल में उतरकर देख लो,
इन निगाहों का तेरे बिन आसरा कुछ भी नहीं।
                                   ©अतुल कुमार यादव.