जमाने को झुका दूँ

जमाने को झुका दूँ मै वो अदावत साज रखता हूँ,
फलक को नाज हो जिस पर वो परवाज रखता हूँ,

गये वो दिन जब जुबाँ मेरी अक्सर खामोश रहती थी,
सुनो! ये जहाँ वालो अब मै भी इक आवाज रखता हूँ।

ऐसा भी नहीं है दोस्तों कि दर्द कम है मेरे सीने में,
मगर सहने को हर दर्द एक जिगर जाबाँज रखता हूँ।

दिल की प्रबल इच्छाओं ने किया मुझे हर बार रुसवा,
मगर अकल का दिल से ज्यादा असर अन्दाज रखता हूँ।

अनुभवों ने सीखा दी मुझे भी इस जहाँ में दुनियादारी,
आज सुकूँ के लिये मै भी इक अलग अरदा रखता हूँ।

इमारतों की नगरी में बनाऊँ ताज गर कभी मुमताज रखूँ,
मगर मैं तो वो परिन्दा हूँ जो सबसे अलग उड़ान रखता हूँ।

दर्द-ए-दिल गर शामिल करो कभी दौलत की खुमारी में,
तो शहंशाहों की उस नगरी का मै अपने सर ताज रखता हूँ॥
                                                   ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"