चित्र - गूगल से साभार
तारिखों में ढुढ़ते-ढुढ़ते वर्षों निकल गये,
हूँ वही ना जाने कितने मौसम बदल गये,
बस मेरी ही दुआ मेरे काम ना आयी कभी,
और ना जाने कितनों के मुकद्दर बदल गयी,
एक तेरा ही दिल ना जाने क्युँ नहीं पिघला,
पानी से तो बड़े-बड़े सख्त पत्थर बदल गये,
घायल किया जिसने मुझे जख्म देकर यारों,
उसका जेहन ना बदला बस खन्जर बदल गये,
बुनता रहा मैं अपना एक ही ख्वाब बार -बार,
उतने में ना जाने कितने परिन्दे घर बदल गये,
अरसों से बिछी रही तेरे राह में मेरी आँखे,
तू आया तेरे उजाले से मेरी नजर बदल गयी,
कोई कलाम तेरा उनको पसन्द ना आया "अतुल"
खुन से लिखते - लिखते तेरे नश्तर बदल गये॥