प्रेम-निवेदन

तुम जानती हो?
तुम मुझे
बहुत अच्छी लगती हो।
मालूम है मुझे,
तुम सुन्दर हो
गोरी हो
आकर्षक हो
और साथ ही साथ हँसमुख भी।
पर तुम्हारी सुन्दरता
तुम्हारे चेहरे से बयाँ नहीं होती।
तुम्हारी ये झील सी
बड़ी बड़ी आँखें,
सुन्दर तो है पर 
जब शर्म से झुकती हैं तो
और भी सुन्दर हो जाती है।
झुकते वक्त तो 
मानो लगता है
ये आसमाँ ही झुक रहा।
कभी कभी सोचता हूँ,
कहाँ से पायी है आँखें??
तुम्हारी मुस्कुराहट
जो तुम्हारे होठों में छिपकर
शालीनता से मुस्कान भरती है।
तब तो मानो दिल में
छेद कर जाती है। 
गुम कर देती है हमें,
इन फिजाओं के वादियों में।
कुछ सोचने पर 
मजबूर कर देती है,
और तुम्हारी आवाज
जब हँस हँस के बोलती हो,
या यूँ कहूँ कि बोल बोल के हँसती हो,
तो लगता है कि
नदी की धारा रुक रुक क्र
मन को भीगोती
चल रही है।
कल तक सोचता था
तुम कहाँ?? और ये जमाना कहाँ??
पर आज सोचता हूँ
ये जमाना कहाँ? और तुम कहाँ?
शायद
तुम हो आधुनिक....।
तुमने आधुनिकता को 
अपने में सहेज रखा है।
आज मेरी कविता का 
एक एक अक्षर, 
एक एक शब्द
तुम्हें टुकुर टुकुर देखता है,
निहारता है।
जैसे कोई बच्चा
दुध पीते हुये 
अपने माँ ?
का चेहरा देखता है।
जानती हो?
तुम्हारा कविता हो जाना
या कविता का तुम हो जाना
एक ही पल में खत्म कर देता है,
मेरे मन का काश!
कि तुम कविता होती
जानती हो क्यू?
नहीं न?
क्युकि बह जाता है
कवि का अहसास
कवि का भाव 
रात का चाँद और
और एक जमाने का प्रेमी।
जानती हो कहाँ?
नहीं न?
अरे!
तुम्हारे इन आँखों के 
नेह सागर में।
पर हाँ सुनो!
एक प्रेम दफन है
आज मेरे सीने में,
जो सदियों पहले
दफना दिया था किसी ने,
तुम चाहो तो वो प्रेम 
जगा सकती हो,
जिस पर हक होगा
सिर्फ़ और सिर्फ़ तुम्हारा।
सोचता हूँ कभी कभी
कह दूँ तुमसे प्रेम के वो तीन अल्फ़ाज,
पर नहीं, आज नहीं कह सकता।
हाँ आज नहीं, पर जब तुम मुझेे
स्वीकार करोगी,
तब चुम लूँगा तुम्हारे अधरों को,
लगा लूँगा सीने से,
और फिर तुम खुद ही सुन लेना,
मेरे दिल के वो तीन अल्फ़ाज
जिसकी जरूरत है, तुम्हें भी और मुझे भी,
जिसकी चाहत हैे, तुझे भी और मुझे भी
बोलो! तब फिर लग के दिल से, सुनोगी?
मेरे दिल के वो तीन अल्फ़ाज?
छोड़ता हूँ तुम पर, 
मैं बस इन्तज़ार करूँगा,
तुम्हारा और तुम्हारे जवाब का।
                         ©अतुल कुमार यादव "अतुल्य"